मुझे आजकल लगता है कि मैं कोई जमाने से यहीं खड़ा, हवा चले न चले सिर पटकता पेड़ हूं।
या कोई धूल से अटी पिचके टायर वाली जीप हूं जिसके स्टीयरिंग का पाइप काटकर मेरे गांव छोकरे लोहार से कट्टा बनवाने की सोच रहे होंगे।
या कोई हिरन हूं जिसकी सींगों को तरास कर, भुस भर दिया गया है और जिसकी कांच की आंखों में उजबकपन के सिवा कोई और भाव नहीं है।
कभी लगता है कि बीमार, मोटे, थुलथुल, सनकी, भयभीत और ताकत के नशे मे चूर लोगों से भरे एक जिम में हूं।
पसीने और परफ्यूम की बासी गंध के बीच मुझे एक ऐसी मशीन पर खड़ा कर दिया गया है जिस पर समय लंबे पट्टे की तरह बिछा हुआ है।
मैं उस पर दौड़ रहा हूं, पसीने-पसीने हूं, हांफ रहा हूं लेकिन वहीं का वहीं हूं।
कहीं नहीं पहुंचा, एक जमाना हुआ।
समय का पट्टा मुझसे भी तेज भाग रहा है।
अगर मैं उसके साथ नहीं चला तो मशीन से छिटक कर गिर पड़ूंगा और कोई और मेरी जगह ले लेगा।
मैं थक रहा हूं यानि समय जरूर कहीं न कहीं पहुंच रहा है।
मैं लोगों को चलने का भ्रम देता आदमी का एनीमेशन हूं (यह सिर्फ मुझे पता है।)
जमाना हुआ, मैं कहीं गया ही नहीं।
कई बार सपनों में बेहद तेज हूक उठी लेकिन वह नींद में ही मर गई।
आखिरी बार मैं शायद............Read More......
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