10.7.08

बुआ से परिहास नैतिक या अनैतिक

जैसे अपने अटल बिहारी वाजपेयी क्रानिक बैचलर हैं वैसे ही मैं क्रानिक बदतमीज हूं.सो मेरी बदतमीजियों को झेलना आप सबकी मजबूरी है.इसी क्रम में मेरा एक सवाल है.बुआ से मानसिक बलात्कार (या अभिसार)नैतिक है अथवा अनैतिक.अब आप इसे क्या मानते हैं.इससे हमें कुछ भी लेना-देना नहीं.हमारी दृष्टि में तो यह पूरी तरह नैतिक है.मानसिक भी और शारीरिक भी(यदि बुआ जी राजी हों तो)दरअसल,हमारे यहां इसकी पूरी आजादी है.हो सकता है आपको मेरी बात अच्छी न लगे.लेकिन है सोलह आने सच्ची.सुलतानपुर व इसके आसपास के जिलों में बुआ से मानसिक व्याभिचार के पीछे जो कारण है,यदि आप उस पर गौर फरमाएंगे तो शायद आपको यह बात बुरी न लगे.हुआ यह कि भगवान राम व उनके तीनों भाइयों द्वारा सरयू में जल समाधि लेने के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र कुश अवध के सम्राट बने.कुश अतीत की दो घटनाओं से बेहद आहत थे.पहली घटना थी उनकी बुआ द्वारा माता सीता के विरुद्ध के रची गई साजिश.दूसरी अयोध्या के एक धोबी द्वारा माता सीता के चरित्र पर टिप्पणी.अवध के लोकगीतों के अनुसार राजा दशरथ की एक दत्तक पुत्री थीं और उनका विवाह श्रंगी ऋषि के साथ हुआ था.लव व कुश जब गर्भ में थे तो परंपरानुसार ननद होने के नाते वह माता सीता की देखभाल व मार्गदर्शन के लिए मायके में लाई गई थीं.एक दिन उन्होंने माता सीता से कहा कि भाभी रावण का चित्र का बनाओ.सीता जी ने यह कह कर मना कर दिया कि उन्होंने कभी रावण के चेहरे की तरफ नजर ही नहीं डाली थी.लेकिन बुआ जी (माता सीता की ननद)कहां मानने वाली थीं.अनवरत हठ करती रहीं.एक दिन उनका मन रखने के लिए माता सीता ने कहा कि जब रावण अशोक वाटिका में उन्हें अपनी पटरानी बनाने का प्रस्ताव देने आया था तो वे अपने पैर के नाखूनों पर निगाह गड़ाए चुपचाप बैठी थीं.उस समय रावण के चेहरे का अक्स उनके पैर के अंगूठे के नाखून पर दिखा था.उसी आधार पर मैं तुम्हें रावण का चित्र का बना कर दिखाती हूं.जब उन्होंने चित्र बना दिया तो बुआ जी ने उसे लेकर चुपचाप भगवान राम को दिखा दिया.साथ में यह भी जोड़ दिया कि तुम अग्रि परीक्षा की बात कहते हो सीता तो अब भी रावण को याद कर उसकी तस्वीर बनाया करती हैं.उसी समय एक घटना और हो गई.रात में भगवान राम प्रजा का हाल लेने के वेश बदल कर अयोध्या में विचरण में कर रहे थे.उनके कानों में आवाज पड़ी.एक धोबी अपनी पत्नी को पीट रहा था.साथ में यह कह कर उलाहना भी दे रहा था कि तू आधी रात तक घर से बाहर रही.मैं राम नहीं हूं.जो तुझे फिर रख लूंगा.इन दोनों घटनाओं से राम इतने क्षुब्ध हुए कि उन्होंने माता सीता को वनवास दे डाला.कुश और लव वन में महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पैदा हुए.जिन्हें महल में पैदा होने के बाद रेशम के बिस्तर मिलना चाहिए था उन्हें कुश नामक जंगली पौधे से बनी चटाई मिली.उसी पौधे के नाम पर कुश का नामकरण भी महर्षि ने किया.कुश अपनी मां साथ हुए इस अन्याय को आजीवन नहीं भुला पाए.सम्राट बनने के बाद उन्होंने अयोध्या के बजाय वहां से ३६ मील दूर गोमती के तट पर कुशभवन पुर नामक नगर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया.बुआ और अयोध्यावासियों के प्रति उनके मन में ग्रंथि थी कि इनकी वजह से ही उनकी पतिव्रता मां को दारूण दुख झेलने पड़े.साथ यह भी कि सरयू में उनके पिता और चाचा ने जल समाधि ली थी.कुशभवन पुर में बुआ के प्रति मजाक की भी परंपरा इसी कारण प्रारंभ हुई.यों भी मां का सबसे ज्यादा उत्पीड़न बुआ ही करती है.सो मां के सुयोग्य पुत्र होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम मां के साथ बुआ द्वारा किए गए दुव्यवहार का ऋण अवश्य चुकाएं.

5 comments:

  1. बाप रे बाप, मान गया, बहुत महान हैं आप

    ऐसे ही लिखते रहे तो दंगा हो जाएगा.....:)

    मेरा मानना है कि पुरानी जो अच्छी चीजें थीं, उन्हें स्वीकारना चाहिए। बुरी प्रथाओं का तिरस्कार होना चाहिए। महिला कोई भी हो रिश्ते में, उसके साथ बराबरी का व्यवहार होना चाहिए। किसी भी तरह के उत्पीड़न का समर्थन किसी हालत में नहीं करना चाहिए भले ही उसके लिए हमें धर्म ग्रंथ या धर्म कथाएं प्रोवोक करतीं हों।

    कहानी बेहद इंटरेस्टिंग है पर यह फालो करने लायक कतई नहीं है।

    अगर ये सिर्फ मन की भड़ास है तो ठीक है, अगर ये सामाजिक नियम बनेगा तो अनर्थ हो जाएगा...

    लग रहा है मैं कुछ सीरियसा रहा हूं....निकल लेता हूं अब पतली गली से...

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  2. जगदीश भाई,

    अद्भुत लिखा है, दद्दा ने सच कहा भैये दंगा करवाओगे. मगर दद्दा एक बात है इस तथ्यों को देखते हुए तर्क की बात करने वालों को कुछ सोचना विचारना होगा. मैं खुद भी मिथिला से हूँ और सीता माता पर हुए अत्याचार का दोषी राम को मानते हुए राम राज्य की परिकल्पना से इत्तिफाक नहीं रखा और मेरे इस इत्तेफाक को जगदीश भाई के तर्क से और भी बल मिला है, सच में अयोध्या इस धरती का सबसे अपवित्र जगह है जो नाम मात्र पर इंसानियत में बैर करवाने में सक्षम है बाकी रिश्तों पर नजर रखो तो कुछ कहने सुनने की जरुरत नहीं पड़ती है.

    जय जय भड़ास

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  3. भाई रजनीश,दरअसल आपने मेरी पोस्ट कुबूलनामा नहीं पढ़ी.आप उस समय छुट्टी पर चल रहे थे.एक बार पुरानी पोस्टों पर जाकर उन्हें पढ़ लें.दरअसल सर्वकालिक रिश्ते के अनुसार आप हमारे ममेरे भाई हैं.सो समर्थन करना आपकी मजबूरी है.जहां तक यशवंत की बात है तो वे भी भाई ही हैं क्योंकि भगवान कुश उन्हीं के यहां (कानपुर,जहां महर्षि वाल्मीकि आश्रम था)पैदा हुए और पले बढ़े.

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  4. विप्रवर,अगर इस तरह की बातों रुग्ण बातों को हम अपनी माइथोलाजी में तलाशें तो हमें कदाचित पुत्री से लेकर मां तक के साथ संभोग करने की बातें मिल जाएंगी तो क्या इन्हें मान कर हमें शुरू कर देना चाहिये। मैं एक बार नहीं हजार बार कहता हूं कि इस तरह की घटिया बातें हमारे जिन ग्रन्थों में लिखी हैं वे हमारें मुनियों द्वारा लिखे न होकर वणिक सोच के कमीनो के द्वारा लिखवाए हैं। मेहरबानी करके हमारे अतीत को धूमिल करने की साजिश को कामयाब न होने दें इस तरह की बातों को लिख कर और यदि आप इन्हें सत्य मानते हैं तो इस तरह की सारी कथाएं एकत्र करिये मैं उन्हें एक स्थान पर प्रकाशित कराना चाहता हूं ताकि लोग हम सबसे नफ़रत कर सकें ......
    जय जय भड़ास

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  5. आदरणीय कुलभूषण, विप्र शिरोमणी पंडीत त्रिपाठी जी, थारै कमल जैसे चरणों मे साष्टांग से भी साष्टांग वंदन !
    भाई आज ताउ नै पक्की तरिया समझ आ गई सै की थम ताउ को कुटवावोगे जरूर ! और भाई तबियत सै कुटवावोगे ! इब थारै तै दोस्ती करी सै तो भाई ठीक सै ! थारै जच ही गयी सै की सबके लत्ते उतरवाने ही सै तो भाई जैसी भी पंचो की राय !

    भाई लोगो मेरा ये सोचना है कि -- हमारे शाश्त्रो मे तो अनेक प्रसंग आये है ! ब्रह्माजी और उनकी पुत्री आदि.. आदि... !
    मुझे अन्यथा भी ना ले , पर हमारा लिखित इतिहास नही रहा है ! हमारे सारे शाश्त्र ज्यादातर स्मृतियों से आये है ! इनमे अपनी सुविधा के हिसाब से सुधार हुवा होगा ! ऐसा माने जाने
    मे कोई बुराई नही है ! इसके उदाहरण बतौर समझ ले... कि अगर राम रावण युद्ध मे रावण जीत जाता तो आज शायद रामलीला की जगह रावणलीला हो रही होती ! और यहा मैं डॉ. रूपेश जी के शब्द
    उधार लेना चाहूंगा कि ये सब वणीक सोच का नतीजा है !अपने स्वार्थ के लिये कुछ भी लिखवाने की सुविधा रही है !

    ऐसे मे स्थानिय मान्यताए आदि कुछ भी हो सकती हैं और हम उनको सामाजिक हित मे दरकिनार करने लायक समझे तो अवश्य कर देनी चाहिये !

    अगर हम इसको बहस का मुद्दा बनायेंगे तो सिर्फ शब्द जीतेगा ! भावनाए हार जायेंगी ! क्योंकि तर्क तो वेश्या जैसा होता है !
    यानि जो ज्यादा कीमत दे दे ! ये दोनो ही जयादा कीमत देने वाले की सम्पति होते हैं !
    अत्: शब्दो के सहारे हम कुछ भी सिद्ध कर सकते हैं !

    और भाई पंडीतजी म्हारे को जूते पडे हुये भी घणै साल हो गये सै ! तो जूते भी पडवावो तो तबियत से पडवाणा कि मजे आ जाये ! और थारी दोस्ती दो चार जनम तो ताऊ याद रख सके !

    बोलो कुश भवनपुर वाले राजाधिराज पंडीत महाराज
    श्री श्री जगदीश जी त्रिपाठी जी की जय !

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