
अभी अखबार पढ़ते-पढ़ते मुझे बाहर से फ़िल्म जन्नत का ये गाना सुनाई दिया. चार दिनों दा प्यार हो रब्बा... लम्बी जुदाई, लम्बी जुदाई. मौका और दस्तूर के हिसाब से ही गाना बज रहा था, इसलिए चेहरे पर एक मुस्कान खिल गयी. असल में संप्रग और वाम के रिश्तों की टूटी डोर और सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकले जाने के बाद इस गाने की प्रासंगिकता और बढ़ी हुई लगी. लेकिन फर्क सिर्फ़ इतना ही है कि वाम और संप्रग का बेमेल प्यार या फिर यूँ कहें कि वाम दलों द्वारा संप्रग के साथ अप्राकृतिक राजनीतिक यौनाचार चार दिनों तक नहीं बल्कि चार सालों तक चला. सरकार बहुत ज़्यादा तकलीफ महसूस करने लगी, तो उसने भी बिस्तर से उठने की हिम्मत दिखा ही दी. लेकिन वाम दलों ने लाजवंती सरकार की इस हिमाकत का बदला अपने ही वरिष्ठ साथी से ले लिया. 40 सालों तक जिसने पार्टी (सीपीएम) की निःस्वार्थ सेवा की, उसे एक झटके में पार्टी से निष्कासित कर डाला. आख़िर माकपा क्या चाहती थी सोमनाथ चटर्जी से. क्या वे स्पीकर के दायित्व का निर्वहन न करके एक आम राजनेता की तरह आचरण करते. स्पीकर होने का मतलब जिस करीने से सोमनाथ चटर्जी ने भारत के लोगों और राजनेताओं को समझाया है, संसदीय इतिहास में आज तक इतने कायदे से कोई नहीं समझा पाया था. सोमनाथ चटर्जी भले ही विश्वास मत से पहले कुर्सी छोड़ कर नहीं गए, लेकिन उन्होंने विश्वास मत की पूरी प्रक्रिया के दौरान अपने आचरण में किसी दल विशेष का पुट सुवासित नहीं होने दिया. अपना काम बखूबी अंजाम दिया और वैसी नौबत भी नहीं

अप्राकृतिक राजनीतिक यौनाचार तो था ही मगर एकदुसरे से ज्यादा लोकतंत्र का, लोगों की भावनाओं का, विश्वासघात था ये मिलन दोनो पार्टियों के द्वारा। सच्चे मायने में लोगों का सामाजिक बलातकार किया था इन दोनों पार्टियों ने। हमारी नदान आमजन कब सोचने लायक होगी प्रश्न तो इस पर आकर अटकता है
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