गज़ल
तेरी शातिर नज़र के क्या कहने.
तेरी पतली कमर के क्या कहने.
थाह पाई कहाँ ? जमाने ने ,
तेरी गहरी नहर के क्या कहने.
कितने जलवाये, कितने कटवाये,
तेरे ख़ौफ़ो-ख़तर के क्या कहने.
चीखें अब भी सुनाई देती हैं,
तेरे क़ातिल शहर के क्या कहने.
रुहें अब भी सवाल करती हैं,
तेरे पिछले ग़दर के क्या कहने.
मैं भी तेरी ज़बान बोले हूँ ,
मुझ पे तेरी असर के क्या कहने.
डॉ.सुभाष भदौरिया
भाईसाहब,आपका क्या कहना.... तुस्सी ग्रेट हो पा’जी.....सिंपली ग्रेट.....
ReplyDeleteभदोरिया जी,
ReplyDeleteये क्या बिन होली के होली, और बेचारे संजय बेगानी के रस में डुबे भडासी. बढिया हैं. और कमाल का है. होली का खुमार अभी तक उतरा नहीं जो संजय जी के पीछे पर गए ;-)
जय जय भड़ास