ज़हर कोई हंस कर निगलता नही है
क्यूँ सुकरात कोई निकलता नही है।
यूँ बैठे हैं महफिल चेहरे हजारों,
मगर दोस्त कोई भी मिलता नही है।
कुछ ऐसी है रंगत तेरी शोखियों की,
कि सूरज सहम कर निकलता नही है।
भले मोम का है दिल ये हमारा,
लगे आंच कितनी पिघलता नही है।
समंदर मैं यूँ तो हैं motee हजारों
जो हम ढूंढते हैं वो मिलता नही है।
गज़ब की कशिश है तेरी शख्शियत मैं,
पर मकबूल यूँ ही फिसलता नही है।
Maqbool
यूँ बैठे हैं महफिल चेहरे हजारों,
ReplyDeleteमगर दोस्त कोई भी मिलता नही है।
अरे अरे, मकबूल भाई साहब,
एसा कैसे कह दिया आपने, आपके हजारो आशिक हैं, बस इसी तरह अपनी लेखनी से सबको मस्ती के जाम से सराबोर करते रहिये।
जय जय भडस