आज कुछ घटनाक्रम इस तरह नज़र के सामने से गुजरे की दिमाग तुंरत मीडिया की भूमिका को लेकर सक्रिय हो गया. विगत वर्षों, माहों की कुछ घटनाओं ने मीडिया की साख को बढाया है तो उससे अधिक कम भी किया है. अभी एक-दो माह पहले तक मीडिया के पास आरुशी को लेकर ही खबरें हुआ करतीं थीं, अब पता नहीं की उस केस में असली मुजरिम कौन है? इसी तरह अभी तक पता नहीं था कि अभिनव बिंद्रा कौन हैं, अब जहाँ देखो बिंद्रा ही बिंद्रा हैं. कुछ समय पूर्व कुछ क्रिकेटर बुरी तरह आलोचना का शिकार हुए अब वो ही सर-आँखों पर चढ़े हैं।
कुछ समय से, जबसे मीडिया के कई सारे आइटम (चैनल) हो गए तब से मीडिया के पास सबसे पहले (मैंने कर दिखाया की तर्ज़ पर) कुछ करने की हडबडाहट रहती है. क्या सही है क्या ग़लत इसका ख्याल नहीं रहता. यहाँ हम आरुशी, क्रिकेट, बिंद्रा आदि की बात नहीं कर रहे बल्कि मीडिया द्वारा उठाये जा रहे मुद्दों का बच्चों पर कितना प्रभाव पड़ रहा है उसे दिखाने की कोशिश मात्र है।
अभी लगभग हर इलेक्ट्रोनिक चैनल में ये ख़बर बड़े जोर-शोर से आ रही थी कि 2012 में प्रलय होगी और समूची धरती नष्ट हो जाएगी, देवताओं के अवतार कल्कि ने जन्म ले लिया है आदि-आदि. इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखा कि बच्चों में एक तरह का डर सा बैठ गया है. अपने साथियों के साथ अपने शोध संसथान "समाज अध्ययन केन्द्र" के माध्यम से शहर में ही एक छोटा सा सर्वे करवाया तो पता चला कि कुछ बच्चों में पढने को लेकर ललक समाप्त हो गई, कुछ के रहने-खाने-पीने का ढंग बदल गया, कुछ ने घर में बड़ों के साथ अपना व्यवहार बदल सा दिया।
कमसे कम मीडिया का ये रोल तो कभी नहीं रहा. मीडिया के ऊपर भी अंकुश लगे कि क्या दिखाया जाए, क्या नहीं? अश्लील प्रदर्शन पर मीडिया की दलील रहती है कि जनता जो देखना चाहती है वे वही दिखा रहे हैं, क्या पब्लिक में बच्चे शामिल नहीं हैं? पब्लिक कम से कम वो तो नहीं देखना चाहेगी जो बच्चों को बिगाड़ दे, भले ही वो ज्ञान का विषय हो या अश्लीलता का? मीडिया इस पर विचार करेगी? सरकार इस पर विचार करेगी? जनता इस पर विचार करेगी?
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