साठ हजार करोड़ की लोन माफी योजना लागू होने पर भी किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला बदस्तूर जारी है। सरकार की इतनी बड़ी योजना के बावजूद दीगर बीत यह है कि, किसानों को राहत क्यों नहीं मिल रही है ? क्या वजह है कि खेतीहर मजदूर आए दिन पेड़ों से लटका मिल रहा है ? इन सवालों के जवाब के लिए गांव की रवायत और खेती की अर्थव्यवस्था की पड़ताल करनी होगी।
सरकारी दावों के बावजूद साहूकार कानून को मुंह चिढ़ा रहे हैं। इनके चंगुल में फंसे किसान फिर उधार का बीज धरती में बो चुके हैं। ज्यों-ज्यों बीज बढ़ेगा त्यौं-त्यौं ब्याज।
नतीजतन पकने से पहले ही फसल साहूकार की। खेती योग्य साजो सामान से लेकर गृहस्थी का का भार ढोने तक कदम-कदम पर मझोले और सीमांत किसान इन्हीं साहूकारों के मोहताज हैं। गांव में यह सदियों पुरानी रवायत है। आर्थिक उदारवाद और विदेशी पूंजी निवेश के दौर में कर्ज गहना बन चुका है, लेकिन इन्हें न तो उदारवाद का ही पता है और न ही कर्ज लेने की तिकड़मी तकनीक का। इनके लिए तो कर्ज उस हंसुली की तरह है जिसे पहनने के बाद उतारने के लिए गर्दन कटानी ही पड़ती है।
2003 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 27 फीसदी किसान अभी भी साहूकारों से ही कर्ज लेते हैं। यह सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी है असल में इससे कहीं ज्यादा किसानों की गर्दन इनके शिकंजे में फंसी है। एक सौ बीस अरब की आबादी वाले देश में तीन सौ करोड़ लोग खेती के सहारे ही जीवन-यापन करते हैं। सरकार ने इनकी सुविधा को ध्यान में रखकर लोन मुहैया कराने के लिए 31 राजकीय कॉ-आपरेटिव सोसायटियां, 355 जिला कॉ-आपरेटिव सोसायटियां और दस लाख पांच हजार निजी ऋण समितियां भी खड़ी कर रखी हैं। इनसे आसान किस्तों और कम ब्याज पर लोन दिया जाता है। कच्चे आंकड़े के हिसाब से इन्होंने लगभग 12 करोड़ लोगों को लोन दिए होंगे। बाकी के दो सौ अठानवे करोड़ तो साहूकारे के दलदल में ही धंसते हैं। आप सोच रहे होंगे कि संपन्न किसान क्यों कर्ज के बोझ में दबना चाहेगा ? इसकी हकीकत भी जानिए। सरकारी पैसे का फायदा संपन्न किसान और सोशल ऑपिनियन लीडर ही उठा रहे हैं। नौकरशाही की माई-बाप वाली छवि के चलते छोटे किसान बैंकों के बाहर से ही लौट जाते हैं और न ही इनके पास कर्ज के बदले गारंटी के लिए कुछ होता है। इस पर भी अगर जैसे-तैसे करके लोन मिल जाए तो पंद्रह फीसदी तो बैंक के कर्मचारी ही रख लेते हैं। यही सारी खामियां इन साधन संपन्न किसानों की मजबूती बन जाती हैं। सहकारी समिति जैसे संस्थान इनके जेबी होकर रह गए हैं। मजदूर के नाम फर्जी जमीन दिखाकर लोन के रूपयों से अपनी जेबें भर लेते हैं। समितियां भी खुश हैं, खाओ और खाने दो के सिद्धांत पर चलकर अपार सुख भोग रही हैं। सोसायटियों का कारोबार भी इन्हीं नेताओं के सहारे चलता है। यह ऑपिनियन लीडर दबंगई से किसानों की आफत किए रहते हैं। लोन माफी की योजनाओं से सोसायटियों का पैसा वापस आना इनके कारोबार में इजाफा ही करता है। लोन माफी के मसौदे तैयार कराकर ऊपर तक भी यही भिजवाते हैं। सोसायटियों का लोन देने का अंदाज जरा अलग है। रूपयों के बजाय खेती योग्य साधन मुहैया कराए जाते हैं। खाद, बीज, पंप आदि किसानों को बाजार भाव पर दिए जाते हैं जबकि सोसायटियां इन्हें पचास फीसदी दाम पर खरीदती हैं। देसी कंपनियों का माल तो कौड़ियों के दाम खरीदकर किसान को बाजार भाव में मढ़ दिया जाता है। फिर चाहे खेत में जाकर काम करने से पहले ही ठप्प पड़ जाए। यहां न सरकारी एगमार्क है और न ही आईएसआई। भाड़ में जाए जागो ग्राहक जागो।
कर्ज माफी की योजना को लेकर बैंक के एक कर्मचारी से बात हो रही थी। इनका कारोबार थोड़ा अलग है। कह रहे थे कि इस बार उगाही के लिए गांव-गांव भटकना नहीं पड़ा। सरकार भरपाई कर रही है और “बैड डैट” की जगह चमाचम बैलेंस शीट ने ले ली है।
कुल मिलाकर इस योजना का फायदा वही उठा रहे हैं जिन्हें कर्ज की कोई जरूरत नहीं या फिर इसकी आड़ में जिनका उद्योग बढ़ रहा है और जेबें मोटी हो रही हैं। तो फिर आत्हत्याएं कैसे रुकें ? कर्ज माफी योजना किसके लिए है ? इन सवालों का जवाब आप ढूंढिए।
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