गांधीगीरी से भाईगीरी तक...
- अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
हिंदुस्तान की आजादी में जितना बड़ा योगदान गांधीजी का रहा, उतना ही क्रांतिकारियों का भी। स्वाभाविक-सी बात है कि कहीं हिंसा का प्रतिकार अहिंसा से करना मुनासिब होता है, तो कई मामलों में कांटे से भी कांटा निकालना पड़ता है। यह मौके की नजाकत पर निर्भर करता है कि कब और कहां कौन सा आचरण अपनाया जाए। फिलहाल, इसे भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की चूक कहें या असफलता, भारतीय जनमानस तीसरे रास्ते पर भी चल पड़ा है। हालिया रिलीज फिल्म 'सी कंपनी' इसी मार्ग की विचारधारा की उपज है। मतलब, गुंडा का मुकाबला गुंडई तरीके से करना। इसे आतंकवाद का 'गांधीगीरी संस्करण' भी कह सकते हैं। भ्रष्ट तंत्र के प्रति विरोध जताने के इस तौर-तरीके पर चिंतन बेहद जरूरी है। दरअसल, प्रतिरोध का भाव कब प्रतिशोध में बदल जाए, कह पाना मुश्किल है।
रील की कहानी कहीं न कहीं रियल लाइफ से ही रचती है। फलने-फूलने के हिसाब से मुंबई अंडरवर्ल्ड के लिए सबसे मुनासिब जगह रही है। भारतभर के छोटे-मोटे गुंडा-भाई और चोर-उचक्के मुंबइया अंडरवर्ल्ड को अपना आदर्श मानते रहे हैं। उन्हें अपराध करने और धन उगाही के नवीनतम तौर-तरीके मुंबइछाप अंडरवर्ल्ड से ही सीखने-समझने को मिलते हैं। भारतीय सिनेमा इस प्रशिक्षण को मनोरंजक तरीके से उपलब्ध कराता रहा है।
खैर, यहां बात भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की खामियों के विरोध में जनमानस में पनप रहे आक्रोश की हो रही है, जिसमें भ्रष्टाचार से लेकर आतंकवाद और गुंडागर्दी जैसे सभी विषय शामिल हैं। कानून और प्रशासनिक तंत्र की लचरता ने जन- मानस पर गहरा असर डाला है। वर्ष 2003 में आई 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' और हाल में रिलीज हुई 'सी कंपनी' व 'अ वेन्ज्डे' में फर्क देखिए, जनमानस के बदलते भावों का स्पष्ट आकलन किया जा सकेगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था दिनों-दिनों खराब होती जा रही है। भ्रष्टाचार और निजी हित देश को दीमक की तरह चट करने में लगे हैं।
बहरहाल जितनी तालियां मुन्नाभाई के ह्दय परिवर्तन पर बजी होंगी, उतना ही उल्लास 'अ वेन्ज्डे' और 'सी कंपनी' के दर्शकों में देखने को मिल रहा है। फिल्म समीक्षा के नजरिये से यह विश्लेषण उत्तेजक भले न हो, लेकिन सामाजिक पहलुओं के हिसाब से यह चिंताजनक स्थिति की ओर इंगित करता है।
गुलामी के काल में सिर्फ दो सिद्धांत काम करते थे, पहला अंग्रेजों को खदेड़ना और दूसरा लोकतंत्र की स्थापना। संभवतः ऐसा किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि 'नेता' इस देश में गाली का पर्याय बन जाएगा, वर्ना सुभाष चंद बोस कभी भी खुद को नेताजी कहलाना पसंद नहीं करते! चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था की बागडोर राजनीतिक हाथों में है, इसलिए भ्रष्टाचार और अव्यवस्थाओं का 80 प्रतिशत दोष इन्हीं के मत्थे मढा जाएगा। बाकी 20 प्रतिशत भारतीय जनता दोषी है, जो भ्रष्ट नेताओं को वोट देती है या रिश्वत, अन्याय और अन्य अव्यवस्थाओं पर चुप्पी साधे बैठी रहती है।
आतंकवाद, अंडरवर्ल्ड, रिश्वतखोरी, अन्याय-अत्याचार जैसे मसले भारतीय न्यायप्रणाली और राजनीति के दूषित होने का ही नतीजा हैं। चिंताजनक बात यह है कि इनका विरोध करने का तरीका धीरे-धीरे गांधीगीरी के इतर दूसरे रूप अख्तियार कर रहा है। 2006 में आई 'लगे रहो मुन्नाभाई' की गांधीगीरी से प्रेरित भारतीय जनमानस धीरे-धीरे दूसरे तौर-तरीके भी अपना रहा है। इसी साल आई 'अपरचित' में नायक विक्रम और 1996 में रिलीज हुई 'हिंदुस्तानी' में कमल हासन के चरित्र ने प्रतिरोध की नई परिभाषा रची थी। यहां विरोध के भाव में प्रतिशोध की झलक भी स्पष्ट देखी गई। हाल में आईं 'अ वेन्ज्डे' और 'सी कंपनी' देश और समाज के हित में एक नई लड़ाई की शुरुआत कही जा सकती हैं। इसे अरब मुल्कों की न्याय प्रणाली का देसी संस्करण माना जा सकता है। मतलब-खून का बदला खून और लूट का बदला लूट....!
हर कला के पीछे कुछ उद्देश्य निहित होते हैं। यह उद्देश्य क्या हैं, यह फिल्म के जनक के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। सिनेमा रामगोपाल वर्मा भी रचते हैं और विधु विनोद चोपड़ा भी। यह जरूरी नहीं कि हरेक फिल्म में शत-प्रतिशत मनोरंजन का मसाला ही इस्तेमाल किया गया हो? 'अ वेन्ज्डे' की रचना करते समय नीरज पांडे की सोच अलग रही होगी और 'सी कंपनी' तैयार करते समय एकता कपूर की अलग। दरअसल, पिछले कुछ सालों में भारतीय सिनेमा यथार्थ को जीने लगा है...और 'द वेन्ज्डे' एवं 'सी कंपनी' ने जनमानस के भीतर की अकुलाहट और आग को ही बाहर निकाला है। यह गंभीर विषय है, जिस पर सामूहिक चिंतन अत्यंत जरूरी है।
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