छायावादी या उन्मादी नाप-तोल कर नही लिखे हैं,
मेरी तरह ,मेरे अक्षर भी जैसे हैं,वैसे ही दिखे हैं,
छप जाऊं स्वर्णिम-पर्षठों में,
या, शिखरों से गाया जाऊं,
पद्मशरी पाने वालो की,
संगत में ,मैं पाया जाऊं,
लंबे जीवन-नभ मे ऐसे यश,के बादल नही दिखे हैं
छायावादी या उन्मादी नाप-तोल कर नही लिखे हैं
दिल्ली की सङकों सा जीवन,
दूषित और जाम रहता है,
यदा-कदा होता विशिष्ट यह ,
वैसे तो ये आम रहता है
चकमा देकर आगे निकलने वाले पैतरे नहीं सिखे हैं
मेरी तरह ,मेरे अक्षर भी जैसे हैं,वैसे ही दिखे हैं
सोचा चाहा कोशिश भी की ,
महानगर पर रास ना आया
क्या-कुछ पा सकता था,लेकिन
इन हाथों में कुछ ना आया
किंचित है,अफसोस मगर संतोष भी है हम नही बिके हैं
,चकमा देकर आगे निकलने वाले पैतरे नहीं सिखे हैं,
देने वालों को क्यों कोसूं,मैं
ही शायद पातर् नही था
जिसको स्वर्ण-पदक बंटने थे,
उस कक्षा का छातर् नही था,
सबको थी आपत्ति कि उत्तर शीश झुकाकर नही लिखे हैं
मेरी तरह ,मेरे अक्षर भी जैसे हैं,वैसे ही दिखे हैं,
-अरविन्द पथिक
पथिक जी,
ReplyDeleteशानदार अभिव्यक्ति है, बहुत खूब लिखा है आपने, बहुत दिनों बाद आए मगर पढने के बाद कोई शिकायत नही की आब बहुत दिन दूर रहे.
आपको बहुत बहुत बधाई