7.9.08

ग़ज़ल

तमन्ना-ए-सरफरोशी का सैलाब चाहिए
फिर ज़रूरत है वतन को इन्कलाब चाहिए

आज खादी में छुपे हैं मुल्क के दुश्मन यहाँ
अब ये सूरत हमें सब बेनकाब चाहिए

हो गई गन्दी सियासत मुल्क की ये देखिये
अब तो मुकम्मल शख्स का ही इन्तखाब चाहिए

चंद गद्दारों के सबब तीरगी में है वतन
दूर करने तीरगी ये आफताब चाहिए

आज के हालात में न जाने कितने हैं सवाल
अब तो हर जवाब हमको लाजवाब चाहिए

सिर्फ़ वादों से नहीं बदलेगा ये प्यारा चमन
अब तो हर कोशिश हमें बस कामयाब चाहिए

आज आती नहीं आवाज़ कोई सामने
कल कहोगे देखना तुम, इन्कलाब चाहिए

2 comments:

  1. बहुत अजीज...... जज्बाते-दिल से जी.अच्छी रचना. भड़ास पर आपका स्वागत है. आप ऐसी रचनाओं के माध्यम दिल के जज्बात को इस मंच पर उभारिये.

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  2. बहुत बढ़िया....मजा आ गया।
    यशवंत

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