19.10.08

ये दिल्ली है.........




ये दिल्ली है ये मेरी रगों में दौड़ता है
जितना आगे बढ़ो उतना पीछे छोड़ता है.....


इस शहर में अब दिल कहां बसते हैं
बस चेहरों की एक भीड़ है
और भीड़ में जिस्म रिसते हैं
दिलवालों का ये शहर अब दिलों को तोड़ता है
ये दिल्ली है ये मेरी रगों में दौड़ता है
जितना आगे बढ़ो उतना पीछे छोड़ता है.......









कई ख़्वाब संजोए थे इन आंखों ने
मगर इस शहर के मंज़र ने वो सब ख़्वाब छीन लिए
बंजर इन आंखों ने टूटे ख़्वाबों के ढेर से
आधे-अधूरे से ख़्वाब फिर से बीन लिए
पहले ख़्वाब दिखाता है, फिर ख़्वाबों को रौंधता है
ये दिल्ली है ये मेरी रगों में दौड़ता है

जितना आगे बढ़ो उतना पीछे छोड़ता है...








इक आंचल था जिसे छोड़कर मैं इस शहर की गोद में आया था
किसी के गले से लिपटने के बाद
मैंने इस शहर को गले से लगाया था
मगर जिसे अपना समझा, वो तो धोखा दे गया
अपनो से दूर कर ये शहर एक झूठा सपना दे गया
इक मां-बेटे के रिश्ते को तोड़ता है....




ये दिल्ली है ये मेरी रगों में दौड़ता है
जितना आगे बढ़ो उतना पीछे छोड़ता है






- पुनीत भारद्वाज

1 comment: