प्रकाश चंडालिया
मारवाडी सम्मलेन वालों पर पहले गुस्सा आता था, अब दया आती है। यदि अपने पर गुस्सा किया जाता है, तो इसलिए कि उससे सुधरने की उम्मीद होती है, और जब सुधरने की उम्मीद ही न रह जाए तो कोई गुस्सा करके भी क्या कर लेगा? इतना जरूर है कि समाज की ठेकेदारी करने का तरीका सीखना हो तो पश्चिम बंगाल में मारवाडी सम्मलेन नामक दूकान चलने वालों से सिखा जा सकता है। वह भी बगैर हिंग-फिटकरी के। बुधवार २९ अक्टूबर को पश्चिम बंगाल मारवाडी सम्मलेन के एक गुट ने दिवाली प्रीति सम्मलेन का आयोजन किया। हर साल एक सेठ को बुलाकर प्रधान अतिथि बना दिया जाता है, सो इस बार नयी मुर्गी के तौर पर डनलप के मालिक पवन रूईया को प्रधान अतिथि बना दिया गया. जिस कोलकाता महानगर में लाखों प्रवासी मारवाडी रहते हैं, उसकी तथाकथित प्रतिनिधि संस्था के प्रीति सम्मलेन में बमुश्किल एक सौ लोग भी जुटे. इनमे २०-२५ लोगों को बाकायदा कुर्सियां भरने के लिए लाया गया था. बाकी २५-३० लोगों का कोई सामाजिक सरोकार रहा हो, ऐसा नही लगता. कुछ बुजुर्ग किस्म के लोग जो स्वाभाव से सामाजिकता निभाना जानते हैं, वे मजबूरी में आए हुए थे, सही मायने में ये लोग सम्मान के हक़दार भी थे, पर आयोजकों ने इनकी उपस्तिथि को महत्व नही दिया. शायद इसलिए कि ये लोग मुर्गी नही थे. कुछ गैर राजस्थानी चेहरे भी दिखाई पड़े, ये लोग सौहार्द बढ़ाने आते तो अच्छा लगता, पर दर-हकीकत ऐसा कोई मामला था नही. इन चेहरों को आयाज्जकों ने अपने बचाव में जुटा रखा था. कुछ सालों से ऐसा ही होता है, क्यूंकि आयोजकों का मारवाडी समाज की मूल संस्था अखिल भारतीय मारवाडी सम्मलेन से कोई सरोकार नही है. और दोनों संस्थाओं में कोर्त्बाजी चल रही है. इस संस्था के साथ वर्षों की लड़ाई के बाद भाई लोगों ने मूल संस्था को दरकिनार करते हुए आयोजन पर कब्जा कर रखा है. मंच पर बाकायदा दावा किया जाता रहा कि यह परंपरागत प्रीति सम्मलेन है और पिछले ६५ सालों से आयोजित हो रहा है. जबकि आयोजक संस्था का पंजीकरण हुए ३-४ साल हुए होंगे. जो भी हो-कब्जा सच्चा-झगडा झुटा. बहरहाल, इसका दूसरा पक्ष भी कम कालिख भरा नही है. प्रधान अतिथि पवन रूईया चूँकि सामजिक सरोकार नही रखते, सो बेचारे समाज के महत्व को क्या जानते. ऐसे प्रीति सम्मेलनों में समाज के ज्वलंत विषयों पर बातें होती हैं, पर रूईया जी अपने संबोधन में शेयर बाजार कि वर्त्तमान स्थिति पर ही बोलते रहे. दाम कब बढेगा, घटेगा वगैरह-वगैरह. ऐसा एक तरफा संबोधन सुनकर लोग काना-फूसी करते रहे, पर रूईया जी तो सुइट की चमक दिखाते हुए अपनी बात कहते रहे. एक बार तो उन्होंने हद कर दी. पद्मश्री विभूषित श्रद्धेय कवि कन्हैयालाल सेठिया के मशहूर गीत -धरती धोरां री, के लिए उन्होंने उत्साह में कह दिया कि इस गीत को -धरती धोरां री की बजाय, धरती मारवाडियों की- होना चाहिए. अब उनपर दया नही आए तो क्या किया जाए. ये पैसे वाले कवि के ह्रदय का बोल भी अपने तरीके से निकालेंगे?सम्मलेन में लोगों के लिए अल्पाहार की बात थी, जो या तो केवल आयोजकों के लिए थी, या फ़िर शायद थी ही नहीं. लोग कनबतिया करते रहे की भैय्या नास्ता रखा कहाँ है. या तो हाल है पश्चिम बंगाल के मारवाडियों की संस्था का. दुःख यहीं ख़त्म नही हो जाता. प्रकाश पर्व का प्रीति सम्मलेन करने वाले आयोजकों को शायद पता नही था की ४ बजे शुरू होने वाला कार्यकर्म एक-डेढ़ घंटे चलेगा, और तब तक अँधेरा भी हो जाएगा. सो भाई लोगों ने एक अदद बल्ब की भी व्यवस्था नही की. अंधेरे में ही माइक से वक्ता बोलते रहे, और लोग अंधेरे में बैठे सुनते रहे. अग्रज रचनाकार की ये पंक्तियाँ कितनी सही हैं, ऐसे लोगों के लिए-
हर एक का जहाँ में अरमान निकल रहा है
तोपें भी चल रही हैं, जूता भी चल रहा है
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