20.10.08

भोत ही चालू लुगाई है...

आज शेव करवाने गया था। जाहिर सी बात है नाई की दुकान पर। नाई अभी शेविंग क्रीम लगा ही रहा था कि एक दुबला सा आदमी दुकान पर आया। काउंटर के पीछे की दीवार पर लगे शीशे में चेहरे को कभी ऊपर से तो कभी नीचे से कई बार देखा। बाल लगभग पचासेक ही थे, पर कंघा तो फिरा ही लिया। अब नाई और इस व्यक्ति में आपस में बातचीत शुरू हुई। नाई मेरी शेव भी कर रहा था और साथ ही रोमांच के साथ उससे बात कर रहा था। मैं मात्र वहां दर्शक की भांति उपस्थित था। उस व्यक्ति को कोई फर्क नहीं, वहां मेरे अलावा यदि चार अन्य भी होते। इसलिए उसने अपनी कहानी जारी रखी। उन दोनों के बीच हुआ संवाद मैं शब्दश: लिख रहा हूं। इनकी बातचीत में लगभग हर वाक्य में ही मां-बहन की गालियों का प्रयोग हुआ था, केवल उसी का संपादन मैंने किया है। नाई का नाम सुरेन्द्र है और दूसरे व्यक्ति का मुझे मालूम नहीं-

`अरे क्या हाल-चाल हैं´- सुरेन्द्र ने उस्तरे में ब्लेड डालते हुए पूछा।
`अपने तो वैसे ही हैं, जैसे कल थे।´
`मतलब´
`आ गई वो। दिमाग खराब कर रखा है। मेरा तो बोलने का भी मन नहीं करता। दिल ना टूट जाए, इसलिए ही बोलता हूं। थोड़ा सा हंसके दिखा देता हूं बस। भोत ही चालू लुगाई है...´
`कब आई´ थोड़ी देर कोई जवाब न पाकर सुरेन्द्र शेविंग क्रीम लगाने लगा। अचानक उसे लगा कि उस व्यक्ति ने शायद उसकी तरफ देखा है, तो हाथ रोककर सुरेन्द्र ने कहा- `क्या´
`कल बहुत हाथ-पांव पड़ी। बोली मुझे मत छोड़ो। मेरा जमाने में कौन है। ना बाप ना भाई।´
`फिर तुम क्या बोले।´
`मेरा पूरा सोना चाहिए। बोलना क्या था।´
`कितना था´
उस व्यक्ति ने मालूम नहीं क्या बोला, मुझे भी नहीं सुनाई दिया।
`कितना´ सुरेन्द्र ने फिर पूछा।
`पांच तोले´
`बड़ी गंदी औरत है यार। घर का सोना दूसरे को दे आई।´
`एक महिने पहले चांदी की पायजेब भी गुम हुई है।´
`गुम-गाम ना हुई भैया। दे आई होगी अपने यार को।´
`जिसने सोना नहीं छोड़ा। वो चांदी क्या घंटा छोड़ेगी।´

अभी तक मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बात किसकी चल रही है। लेकिन फिर भी इस स्टोरी में इंट्रेस्ट तो आ रहा था।

`कल गाना बजा रही थी- मुझे नींद ना आए मुझे चैन ना आए। बाद में बजाया- माधुरी दीक्षित का- धक-धक करने लगा। कभी बजाती है- मेरी किस्मत में तू नहीं शायद। और कभी- बहुत प्यार करते हैं...´ सारे गाने लय में गाकर सुनाए उस व्यक्ति ने।
`क्या बात है। लुगाई तो भाईसाहब भोत ही चालू है।´ सुरेन्द्र ने जोर लगाया।
`गई थी अग्रवाल क्लिनिक। डॉक्टर ने बताया बताते- तेरे में तो कोई दिक्कत नहीं। पति में ही कमजोरी है।´
`हां, पति में तो होनी ही है।´
`हां-हां, नामर्द जो है, उसका पति।´
`और कौन-कौन नामर्द है?´ सुरेन्द्र ने पूछा।
`वो पूरे मौहल्ले को जानती है, कौन मर्द है और कौन नामर्द।´
`मैं भी देख रहा हूं एक छोरी।´
`तेरी घरवाली को भी पता है क्या।´
`उसका क्या, वो मेरा सोना ला दे, फिर देखूंगा।´ अब मुझे पता चला कि यह सारी कहानी वो अपनी पत्नी के बारे में सुना रहा है।
`कौन है?´ सुरेन्द्र ने छोरी के बारे में पूछा।
`नीचे रहती है ना। अरे बो ही जो उस दिन लड़ रही थी सब्जी वाले से। तुम्हारी दुकान के सामने।´
`मैं ना जानूं भैया। कौन-कौन लड़े सब्जी वाले से।´
`अबके दिखाऊंगा।´
इतने में ही तीन लड़के दुकान में घुस गए। उन तीनों के शोर-शराबे में उस दूसरे व्यक्ति की बात लगभग दब सी गई। वो चुपचाप उठकर बाहर चला गया। उसे ना तो नाई सुरेन्द्र ने ही थोड़ी देर बैठने का कहा। मेरी शेव लगभग पूरी हो ही चुकी थी।

मैंने उठते ही पूछा-`कौन था कलाकार।´
`थोड़ा-भोत टाइमपास कर देता है।´ सुरेन्द्र ने मुस्कुराते हुए कहा। http://dard-a-dard.blogspot.com/

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