7.11.08

एक कार्यकर्ता की आत्मकथा

मैं एक कार्यकर्ता हूँ। मैं हर पार्टी में चाहे वो सत्ताधारी हो या फ़िर बाये बाजू की, सब में पाया जाता हूँ।
मैं जीवन भर दरी बिछाता हूँ और दरी उठाता हूँ। मैं झंडी लगाता हूँ और झंडे फहराता हूँ ।
मैं बिल्ले बांटता हूँ और बिल्ले टाँकता हूँ । हर एक वोटर के घर जाता हूँ - उनको ताऊ , काका , फूफा चाचा आदि बनाता हूँ , और मन बहलाता हूँ । अपनी पार्टी के बारे मैं बताता हूँ , उसके नेताओ की खूबियों का बखान करता हूँ।

नेताओ की जय जैकार करता हूँ। जब वे भाषण देते है तो जोर जोर से बीच मैं नेताजी जिदाबाद के नारे लगाता हूँ और ताली बजाता हूँ। । कभी कभी तो इतना चिंघाड़ता हूँ के, मेरा गला बैठ जाता है पर मैं नही बैठता ।

मेरी फसल चुनावों के लिए तैयार की जाती है । और मतदान के दिन मेरी फसल कट कर बिक चुकी होती है। उसके बाद मुझे दूध मैं पड़ी माखी के समान निकाल कर बाहर फेंक दिया जाया है। मैं इस आशा के साथ कोल्हू के बैल की तरह लगा रहता हूँ की एक दिन मैं मेहनत और त्याग को पार्टी पहचानेगी और मुझे भी टिकट मिलेगा पर पार्टी तो छोडो चुनाव के बाद मेरे नेता तक नही पहचानते।

मेरे नेता अब मंत्री बन चुके होते है और अब उनको कार्यकर्त्ता नही सुहाते क्युनके मेरा सीज़न ऑफ़ हो गया होता है। अब उनको चमचे सुहाते है। और चमची हो तो फ़िर और भी ज्यादा अच्छे लगते है। चमचे पंखे होते है और चम्चियाँ एसी।

चमचे ही मुर्गे और मुर्गियां पकड़ के लाते है , माल चटाते है और बची खुरचन खा खा कर अपना कोलेस्ट्रोल बढाते है।

अब मेरे अपने काम भी नही होते और उनके लिए भी मुझे चमचे और चम्चियों के पास जाना पड़ता है।
अब आने वाला सीज़न मेरा है । नेताजी मेरे घर, तथा मेरे गाँव और मेरे खेत मैं धूल फांकते हुए आयेंगे और मक्खन लगायेंगे। मेरी डिमांड अचानक ऐसे बढ़ जायेगी जैसे के शादी सीज़न मैं बैंड बाजों की ।मुझे पार्टी के प्रति समर्पण, अनुशाशन और कर्मठता की दुहाई दी जायेगी। । बाद में मेरी फसल काटने के बाद और सरकार बनने के बाद नेताजी की अनुशाशन हीनता, अकर्मयता को राजनैतिक समझ कहा जाएगा।

खैर अब मैं कुछ समझदार हो गया हूँ। इस लोकतंत्र रुपी भट्टी में सुलग सुलग कर मैं कंचन बन गया हूँ। इसलिए अब की बार जब मेरी फसल आएगी तो मत दाता से पहले मुझे ही सोचना समझना पड़ेगा।

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