विनय बिहारी सिंह
भक्ति काल के विख्यात कवि सूरदास की रचनाओं को पढ़ कर यह बिल्कुल नहीं लगता कि वे अंधे थे। श्री कृष्ण और श्री राम के सौंदर्य का वर्णन करते हुए उन्होंने जो पद लिखे हैं, उसे पढ़ कर भी यह बात साफ हो जाती है। वे लिखते हैं-(गोपी अपनी सखी से कह रही है-)
सजनी, निरखि हरि कौ रूप।
मनसि बचसि बिचारि देखौ अंग अंग अनूप।।
कुटिल केस सुदेस अलिगन, बदन सरद सरोज।
मकर कुंडल किरन की छबि, दुरत फिरत मनोज।।
अरुन अधर, कपोल, नासा, सुभग ईषद हास।
दसन की दुति तड़ित, नव ससि, भ्रकुटि मदन बिलास।।
अंग अंग अनंग जीते, रुचिर उर बनमाल।
सूर सोभा हृदे पूरन देत सुख गोपाल।।
गोपी कह रही है कि हरि का रूप निहार कर मन और वाणी से विचार करके देख िक इनके अंग प्रत्यंग की छटा निराली है। सुंदर घुंघराले केश भौरों के समान हैं। मुख शरद ऋतु के कमल की भांति है और मकराकृत कुंडलों की ज्योति रेखा की शोभा देख कर कामदेव भी लज्जा से छिपता फिरता है। लाल लाल ओठ (होंठ) हैं, कपोल, नासिका और मंद मंद मुसकान बड़ी सुंदर है। दांतों की कांति विद्युत या द्वितीया के चंद्रमा की भांति है और भौंहें तो कामदेव की क्रीड़ा हैं। अंग प्रत्यंग ने कामदेव को जीत लिया है, सुंदर छाती पर वनमाला है। सूरदास कहते हैं कि गोपाल अपनी शोभा से हृदय को पूर्ण आनंद दे रहे हैं। इस वर्णन को पढ़ कर कौन कहेगा कि सूरदास अंधे हैं। एक एक अंग की शोभा का विस्तार से वर्णन क्या कोई जन्मांध व्यक्ति दे सकता है? बिल्कुल नहीं। सूरदास निश्चय ही अंधे नहीं थे। वे खूबसूरत आंखों वाले सुंदर गोरे व्यक्ति थे। हां, वे सांसारिक भोग विलास से विरक्त थे। इसलिए कुछ लोगों ने उन्हें अंधा कह दिया होगा।
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