22.11.08

मैं तेरा क्या लगूं.....!!


मैं तेरा क्या लगूं.....!!


कितना भी रहूँ ग़मगीन मगर हंसता हुआ लगूं...
कोई बद-दुआ भी दे तो उसे बन कर दुआ लगूं !!
ये कड़ी धूप और कभी जो हो बादलों की छाँव...
हर मौसम में मैं फूल सा खिलता ही हुआ लगूं...!!
कई धरम हैं यहाँ और रिवायतें भी हैं कई....
हर किसी को मैं उसके धरम का मसीहा लगूं..!!
अभी तो मैं रात का सन्नाटा बुन रहा हूँ "गाफिल"
दिन में आकर पूछना सूरज कि मैं तेरा क्या लगूं..!!

1 comment:

  1. कई धरम हैं यहाँ और रिवायतें भी हैं कई....
    हर किसी को मैं उसके धरम का मसीहा लगूं..!!
    बहुत ही खुबसूरत एहसास है ये दो पंक्तियाँ तो जान ही ले गई..........
    किसी सागर की प्यास लगूं या तेरे दिल की भड़ास लगूं
    दूर होकर भी पास लगूं या हूं अनजाना पर खास लगूं !!
    ऐसे ही लिख दिया उल्टा सीधा ....
    त्रुटी के लिए क्षमा )


    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है आने के लिए
    आप
    ๑۩۞۩๑वन्दना
    शब्दों की๑۩۞۩๑
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    आभार...अक्षय-मन

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