>>पंकज व्यास
एक जना आके मुझसे बोला, 'चुनाव में अलां उम्मीदवार जीत जाएगा और फलां उम्मीदवार हार जाएगा? मैं अवाक रह गया। उससे पूछा, भाया, तुम कैसे कह सकते हों, चुनाव के पहले चुनाव परिणाम बता रहे हों, क्या बात है? क्या तुम अंतर्यामी बन गए हों, ज्योतिष सीख लिया है? भविष्य वक्ता बन गए हों...? वो बोला, नहीं रे, ऐसी बात नहीं है।मैंने सवाल दागा, 'तो फिर कैसी बात है? उसने तपाक से कहा, 'अलां की सभा में बहुत भीड़ थी, फलां की सभा इने गिने लोग।' मैंने ·हा, 'तो? उसने मुंह खोला, 'आश्चर्य जताया कि अब भी नहीं समझे! जिसकी सभा में भीड़, वह जीता समझो। मैंने समझादारी दिखाई और उसे लगा समझाने, ऐसा नहीं होता है, ये भीड़ तंत्र नहीं, लोकतंत्र हैं। किसी की सभा में ज्यादा भीड़ आ गई, इसका मतलब ये थोड़ी की जीत गया, जिसको ज्यादा वोट मिलेंगे वो जीतेगा। 'फिर इस भीड़ का क्या मतलब? ये भीड़ क्यों जुटी? अगर लोगों को जिसकी सभा में जा रहे हैं, उसे नहीं जीताना है, तो वहां गए ही क्यों..?, ऐसे कई सवाल उसने दाग दिए? और सवालपूछूं मुद्रा में मुझे टकटकी लगाए देखने लगा? मैं फिर लगा फिर अपना ज्ञान झाडऩे, 'कोई सभा सुनने आ गया इसका मतलब ये थोड़ी की वो उसका पक्का वोटर हो गया, व्यक्ति के मन में जिज्ञासा होती है कि चलो क्या ये क्या बोलेगा, इसलिए भी सुनने चले जाते हैं और सभा में जाएंगे नहीं, तो प्रत्याशी के विचार कैसे मालूम पड़ेंगेदोस्तों, मैंने काफी जतन किए वो जना इस बात को नहीं मान पाया कि ये भीड़तंत्र नहीं, लोकतंत्र है। वो अपने कयास लगाता रहा? मैं उसे समझाता रहा कि कोई जन आंदोलन हो तो भीड़ का बड़ा महत्व होता है, उसे जन समर्थन माना जाता है, लेकिन चुनावी सभाओं में जरूरी नहीं कि जनसमर्थन मिल ही रहा हो, पर वह नहीं माना।
भाई,
ReplyDeleteसमझाना ही बेकार है, एइसे लोग तो राजनीति और पत्रकारिता में भी भरे हुए हैं जो परिणाम आने तक अपनी दावेदारी साबित करते हैं.
जय जय भड़ास