अफ़रोज़ आलम साहिल
“हर मुसलमान दहशतगर्द न सही, पर तमाम दहशतगर्द मुसलमान ही क्यों होते हैं…?”
ये एक ऐसा प्रश्न है, जिसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं । एक ऐसा प्रश्न,जिसने मुझे मेरे होश संभालने के बाद से ही परेशान किया है। पर 2008 में मेरी यह परेशानी कुछ कम ज़रुर हुई। पहली बार यह एहसास हुआ कि किसी आतंकी हमले में मुसलमानों के अलावा भी कोई हो सकता है।
लेकिन सन 2008 के बाद से एक और प्रश्न ने मेरे दिमाग को परेशान कर रखा है। वह सवाल है —“पुलिस द्वारा किया गया हर एनकाउंटर फ़र्ज़ी क्यों होता है। और अगर फ़र्ज़ी नहीं होता तो लोग उसे फ़र्ज़ी क्यों मानते हैं। हर एनकाउंटर के बाद पुलिस अपने ही बयानों में क्यों फंस जाती है।”
बहरहाल, अभी बटला हाऊस की गुत्थी सुलझी भी नहीं थी कि मीडिया ने गणतंत्र दिवस के ठीक एक दिन पहले नोएडा में हुए एनकाउंटर को बड़ी आसानी से फ़र्ज़ी घोषित कर दिया। और ये काम शायद पहली बार हिंदी व अंग्रेज़ी मीडिया ने किया है। 27 जनवरी को जैसे ही ‘हिन्दुस्तान’ हाथ में लिया, मेरी नज़र प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक्सक्लूसिव ख़बर पर पड़ी, तो सबसे पहले मन में यह विचार आया कि इस ख़बर को तो उर्दु अख़बार वालों ने खुब पीटा होगा। पर अफसोस मैं गलत था। यहां कोई भी खबर इस घटना से संबंधित नहीं था। दूसरे दिन भी हिन्दुस्तान ने इसे पहली खबर बनाया, जबकि उर्दु अखबारों में इतनी प्रमुखता से जगह नहीं दी गई। अगले दिन भी हिन्दुस्तान में यह खबर नज़र आई।
खैर,पुलिस जिसे अपने कार्य के लिए अत्यंत दयानतदार व इमानदार माना जाता है लेकिन आज कानून व्यवस्था को कायम रखने वाली इस पुलिस के किरदार पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। इसमें अनेकों विकृतियाँ आ गई हैं। पहले इसका राजनीतिकरण हुआ और अब इसका अपराधीकरण हो रहा है। कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेना और अपने मुताबिक चलाना हमारे देश की पुलिस के लिए कोई नई बात नहीं है, जिस पर आश्चर्य किया जाये। लग-भग हर दिन, हर समय देश के किसी न किसी कोने में पुलिस द्वारा कानून को हाथ में लेने के मामले सामने आते रहते हैं। शातिर बदमाशों तथा आतंकवादियों के साथ पुलिस की मुठभेड़ आम बात है, पर इनमें कितनी जायज और कितनी फर्जी होती है, इसका पता नहीं चल पाता। न जाने अब तक कितने हीं मासूम लोगों को फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया होगा।
श्रीनगर के दैनिक समाचार पत्र कश्मीर टाईम्स के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख "इफ्तिखार गिलानी"ने सिहरा देने वाली आपबीती "जेलं में कटे वो दिन" लिखकर देश की पुलिस की हक़ीकत सामने ला चुके हैं। 1968-75 में आई.ए.एस. रह चुकी मैगसेसे अवार्ड से सम्मानित "अरुणा रोय" ने भी अपनी पुस्तक "जीने और जानने का अधिकार" में पुलिस की हक़ीकत को ब्यान कर दिया है। उन्होंने लिखा है, कि "एक नक्सलवादी या आतंकवादी, पुलिस के साथ एक मुठभेड़ में मारा गया" जब हम अखबारों में ऐसे समाचार पढ़ते हैं तो हमें क्या महसूस होता है? बहुत कम ऐसे लोग हैं जो ऐसे समाचार सच मान लेते हैं। ज्यादातर लोग जानते हैं कि "मुठभेड़" का मतलब है "हत्या"
बहरहाल ,पुलिस का यही "मुठभेड़ " एक बार फिर चर्चा में है। वैसे भी दिल्ली में भी फर्जी मुठभेड़ के मामले आते रहे हैं चाहे वो अंसल प्लाजा का मुठभेड़ हो, कनाट प्लेस या फिर २००२ में ओखला में हुई मुठभेड़ हो। या फिर हाल में हुए अहमदाबाद का फर्जी मुठभेड़ हो। पंजाब, जम्मू व कश्मीर में तो यह घटना लगभग हर दिन होते रहते हैं। गुजरात में सोहराबुद्दीन शैख़ व तुलसी राम प्रजापति के मामले को भी अभी ज्यादा दिन नही हुए हैं। इससे पूर्व भी अहमदाबाद के राजनीतिक संरक्षण प्राप्त और बाद में राजनीतिज्ञों के लिए "बेकाम के" हो चुके अब्दुल लतिफ को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया था। अहमदाबाद में हीं समीर खान , मुम्बई के उपनगरीय इलाका मुमरा की १९ वर्षीय मुम्बई कॉलेज की छात्रा इशमत जहाँ का फर्जी मुठभेड़ को भी बहुत ज़्यादा दिन नही गुज़रे हैं। अर्थात देश के हर राज्य में इस तरह की कारनामें गठित होती रहती है। वास्वतव में देखा जाये तो फर्जी मुठभेड़ों की संस्कृति, कानून के शासन की पराजय है।
अगर फर्जी मुठभेड़ों के इतिहास की बात करें तो इसका इतिहास काफी पुराना है। लेकिन मुठभेड़ के बहाने अपराधियों को खत्म करने का चलन 1968 में आन्ध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ। आतंकवादियों, माओवादियों, नक्सलवादी के मार गिराने के नाम पर फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला अब भी जारी है।
फर्जी मुठभेड़ क्यों होते है? आखिर पुलिस क्यों इसका सहारा लेती है? ऐसी कौन सी बाध्यता है, जो इनको फर्जी मुठभेड़ के लिए प्रेरित करता है? क्या फर्जी मुठभेड़ का जिम्मेदार सिर्फ पुलिस है, या इनके साथ कोई और भी है?
वास्तव में, पुलिस जब अभियुक्त को कानूनी कार्रवाई के तहत दोषी सिद्ध करने में नाकाम साबित होती है तो इन विकल्पों को चुनती हैं। पुरस्कार की चाहत, नाम व शोहरत भी यह कार्य करने पर मज़बूर करता है। बल्कि सच्चाई यह है कि बड़े कुख्यात अपराधियों को भी इसमें दखल होता है। कभी-कभी कारपोरेट जगत भी पूरी तरह हावी रहती है। कोई व्यक्ति यदि परेशान कर रहा हो तो पहले उसकी सुपारी अपराधियों को दी जाती थी, अब यह काम पुलिस वाले फर्जी मुठभेड़ के माध्यम से अंजाम देने लगे हैं।
पुलिस का यह कुरूप चेहरा सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि भारत के बाहर भी कई देशों में फर्जी मुठभेड़ होती है। मानवाधिकार की सर्वाधिक वकालत करने वाला देश अमेरिका भी इस मामले में पिछे नहीं है, अक्सर पद, पहुंच तथा व्यक्तिगत महत्वकांक्षा हेतु पुलिस आधिकारी ऐसे कारनामों को अन्जाम देते रहते हैं।
कहीं न कहीं इन मुठभेड़ों के पिछे राजनैतिक उददेश्य भी छिपे होते हैं। 2002 में फर्जी मुठभेड़ के मुददे को "देश प्रेम " बनाम "देश द्रोह " की कार्रवाई करार दिए जाने के पिछे एक बड़ा कारण गुजरात चुनाव था, जिसका फायदा नरेन्द्र मोदी ने हासिल किया और अब भी स्थिति कुछ वैसी ही है, क्यूंकि कुछ ही महीनो लोकसभा व विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं।
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