12.1.09

ऐसा क्यों होता है?

कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा था। बस... कंप्यूटर के कमांड्स चलते जा रहे थे। मन कुछ सोच ही नहीं रहा था। कई बार ऐसा होता है कि हमारा कुछ करने का मन नहीं होता। ... लेकिन हम करते हैं। क्यूं करते हैं... पता नहीं। न तो इस तरह से कुछ करने का कोई अथॆ होता है और न ही इसका नतीजों से कोई खास सरोकार होता है। बस यूं हीं...।

हमारे जीवन में ज्यादा चीजें बेमन से ही होती हैं शायद। बस हम िकए जाते हैं। क्या साथॆकता की सोचे बगैर इस तरह के कृत्य का कोई अथॆ होता है? अगर नहीं तो एेसा क्यों है? किताब में पढ़ी चीजों या बातों से अगर जिंदगी तलाशी जाए तो क्या वाकई जीना मुश्किल हो जाता है? ऐसी मुश्किल से निकलने का क्या यही रास्ता है कि हम बस यूं ही सब कुछ किए जाएं? यूं ही जिए जाएं? इसका सवाल का जवाब मिल जाए तो मुश्किल थोड़ी हल हो जाए।

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