13 फरवरी को संसद में अंतरिम बजट पेश करते हुए प्रभारी वित्त मंत्री संसद में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ होने का दावा कर रहे थे और उन्हें उम्मीद है कि इस बार फिर जनता कांग्रेस को दिल्ली दरबार सौंपेगी। संप्रग सरकार ने आम आदमी के हित के नाम पर पहले से चल रही कई योजनाओं के लिए हजारों करोड़ रुपये जारी किए, लेकिन जिस भारत निर्माण कार्यक्रम को सीढ़ी बनाकर कांग्रेस दिल्ली के सपने सजा रही है उसकी पोल लेखा नियंत्रक एवं महापरीक्षक (कैग) ने खोल दी है। संप्रग सरकार के भारत निर्माण कार्यक्रम में आखिरकार कैग ने कई छेद खोज निकाले। पिछले वित्त वर्ष के खर्च के ब्यौरे को देखते हुए लगता नहीं कि सरकार और कैग के खातों में तालमेल है। 23 फरवरी को जारी कैग रिपोर्ट में कैग ने कहा है कि सरकार विभिन्न योजनाओं के खर्च को आंकड़ों की बाजीगरी से बढ़ाकर पेश कर रही है।
2007 में भारत निर्माण के अंतर्गत चल रही योजनाओं के लिए सरकार ने इक्यावन हजार करोड़ से ज्यादा राशि मंजूर की थी और इस राशि को स्वायत्त और गैरसरकारी संस्थाओं के खातों में स्थानान्तरित किया जा चुका था। कैग को दिए गए जवाब में संप्रग सरकार का कहना है कि योजना को जमीनी स्तर पर लागू करने वाली संस्थाओं ने असल में कितना रुपया खर्च किया है इस बारे में सरकार को कोई जानकारी नहीं है। कैग ने इस मामले में भ्रष्टाचार की गंध सूंघते हुए कहा है कि योजना लागू करने वाली इन संस्थाओं के खातों में दिया गया धन सरकारी खातों के दायरों से बाहर है। साथ ही यह राशि सरकारी चेक और बैलेंस के दायरे से भी बाहर हैं। कैग ने सरकार को लताड़ते हुए कहा है कि गैरसरकारी संस्थाओं को जारी किए गए रुपये में से न खर्च किए गए रुपये का ब्यौरा आसानी से नहीं पता लगाया जा सकता है। ऐसे हालात सरकार की लापरवाही से पैदा हुए हैं। संप्रग के आंक़ड़ों की बाजीगरी पर कैग ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए कहा है कि खातों में हेर-फेर के लिए सीधे पर तौर वित्त मंत्रायलय के खाता नियंत्रक महानिदेशक और व्यय सचिव को जिम्मेदार माना जाएगा और हर बात की जवाबदेही इनकी होगी। यह एक एतिहासिक फैसला है कैग ने पहली बार वित्त मंत्रालय को डाइरेक्ट पार्टी बनाया है।
कैग की रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब चुनाव आयोग कभी भी लोकसभा चुनाव के लिए तारीखों का एलान कर सकता है। चुनाव में आम आदमी के हित का राग अलापने वाली कांग्रेस की छवि को इस रिपोर्ट से लोकसभा चुनाव में धक्का लग सकता है, लेकिन मुझे यह मुमकिन नहीं लगता क्योंकि इस तरह की जानकारी आम आदमी के पास तक नहीं पहुंचती।
कैग ने आम आदमी के हित के बहाने सरकार की फिजूलखर्ची की तरफ भी इशारा किया है। कैग ने 2006 के आंकडो़ का हवाला देते हुए कहा है कि सामाजिक एवं ढांचागत विकास निधि (SIDF) का धन सरकार ने अन्य गैरजरूरी योजनाओं में बहा दिया। इस धन से विकलांगों के लिए रोजगार, ग्रामीण गरीब आबादी के लिए बीमा जैसे जनहित के काम होने थे जबकि सरकार ने इन योजनाओं के हिस्से के धन को कई सांस्कृतिक संस्थाओं को अनुदान देने के साथ ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ मनाने में खर्च कर दिया। 2007 में सरकार ने 6,500 करोड़ और 2008 में 6,000 हजार करोड़ रुपये सामाजिक एवं ढांचागत विकास के मद में जारी किए, लेकिन इन दोनों वर्षों में सरकार ने इस निधि का 3,000 हजार करोड़ रुपया गैरसरकारी संस्थाओं को अनुदान दे दिया और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गैरजरूरी खर्च कर दिया। यहां एक बात सभी जानते हैं कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार को देखते हुए गैरसरकारी संस्थाओं को जनहित योजनाएं लागू करने के लिए सरकार ने साझीदार बनाया था। नब्बे के दशक में आई इन संस्थाओं ने शुरू शरू में जिम्मेदारी से काम किया लेकिन उसके बाद ये संस्थाएं भी भ्रष्टाचार की चपेट में आ गईं और साथ ही सरकार की जेबी संस्थाएं बन गईं। आज हमारे राजनेताओं के अपने खास लोग इन संस्थाओं को चला रहे हैं। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लेकर संप्रग सरकार के मुख्य घटक और परिवहन मंत्री टी. आर. बालू पर भी संस्थाओं और अपने परिजनों को अनुचित लाभ पहुंचाने के आरोप लगे हैं। इससे पहले की सरकार पर भी ऐसे आरोप लगे हैं।
इसके अलावा सरकार ने “आम आदमी” यानी ग्रामीण आबादी को टेलीफोन सब्सिडी के लिए 20,000 करोड़ रुपये जारी किए, लेकिन इस राशि में से केवल 6,000 करोड़ रुपये ही इस मद में खर्च हो सके। बाकी के धन के बारे में सरकार कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं करा पाई है। 20,000 करोड़ रुपये की यह राशि सरकार ने 2003 से 08 तक सार्वभौम सेवा दायित्व निधि(Universal Service Obligation Fund) से इकट्ठा किए थे। बात साफ है कि बाकी बचे हुए धन से सरकार ने राजस्व घाटे की पूर्ति की है। खैर राजस्व घाटे की पूर्ति भा जरूरी है लेकिन इसके लिए आम आदमी को धोखे में रखने की कोई जरूरत नहीं है।
इन आंकड़ों को देखकर साफ पता चलता है कि सरकारें कैसे आम आदमी को बेवकूफ बनाकर अपना हित साधती रही हैं। आंकड़ों की बाजीगरी से नागरिकों को छला जा रहा है। कैग की रिपोर्ट हरेक वित्तीय वर्ष के बाद आती है और रद्दी की टोकरी में चली जाती है। उसे न सरकार तवज्जो देती है और हम। आज हम अपने अधिकारों के लिए जागरुक हो रहे हैं। ज़रा सोचिए क्या हमारा अधिकार यह नहीं कि हम अपना सरकार के खर्च के ब्यौरे को नजदीक से जानें और कैग रिपोर्ट को आधार बनाकर अपनी सरकार चुनने का फैसला करें?
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