प्रथम चरण अग्रिम पथ का,
दर्शन का विनिमय आकर्षण|
किन्तु चक्षु की विधि यही,
नयनाभिराम भी बस कुछ क्षण|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
सहसा प्रेम प्रखर हुआ,
लिये बाहु श्रृंगार वरण|
शिलाखंड-सा मैं तत्क्षण,
सहमा!
फिर सोचा कुछ क्षण|
आकर्षण-सी गति-मति इसकी,
अंतर अवशेष यही पाया|
भाव-विनिमय संबोध लिये,
वस्तु-बोध लिये लिपटी माया|
संबंध-धरा पर अंकुर ज्यों,
पुलकित करता जीवन-तन-मन|
ज्ञात यही प्रतिउत्तर मुझको,
यह आशक्ति का स्तन|
प्रश्न, उत्तर की पृष्ठ-भूमि पर,
संधान उकेरता फिर खेला|
"यायावर" क्यूँ तू ठिठक गया,
आई न अभी अंतिम बेला|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
वस्तु-बोध तब गौण हुआ,
अखंड-प्रवाह-सा कौन हुआ?
यह था क्या मुझमें-तुममें,
तेरा-मेरा सब मौन हुआ|
मनन-गहन की रची विधा पर,
यह कैसी? किसकी है तूती?
चक्षु-हीनता-सी अनुभूति,
यह दो पक्षों की प्रस्तुति|
किन्तु अटल विश्वास नहीं तो,
मानव फिर मरता है हर क्षण|
जीवन-शय्या की अग्नि में,
समर-शेष करता है हर कण|
प्रश्न, उत्तर की पृष्ठ-भूमि पर,
संधान उकेरता फिर खेला|
"यायावर" क्यूँ तू ठिठक गया,
आई न अभी अंतिम बेला|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
पुंज मोक्ष का पकड़ने,
मार्ग को प्रशस्त कर|
पीड़ा को मैं हरना चाह,
"हरि" को समस्त कर|
आस्था का प्रश्न था,
तेरा क्या? तू कौन है?
तूने जननी को न समझा,
ये तेरी समझ का मौन है|
स्वयं मेरा भी नहीं कुछ,
मैं प्रशस्ति पर खड़ा हूँ|
वात्सल्य की है भूख मुझको,
इसलिये भूखा पड़ा हूँ|
रे मुर्ख! "यायावर" तू अपने,
यात्रा को विस्तार दे|
क्यूँ अड़ा है आस्था पर,
समस्त मिथक का सार ले|
यह परिचय दो पक्षों का,
प्रारंभ गति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
मेरे लोचन भरे नीर से,
मातृ-भाव अंतिम परिवेश|
गर्भ-चरण सृष्टी की रचना,
है जननी अंतिम विशेष|
यह जीवन का सत्य समझ मैं,
प्रश्न आस्था से दुहराया|
उसके प्रतिउत्तर में मैंने,
समर्पित रूप "माँ" का पाया|
नौ-मास वरण कर धरा-गर्भ-सी,
जीवन में जीवन का सार लिये|
प्रसव-पीड़ा के अतिरेक में,
समर्पण का विस्तार लिये|
यह परिचय सम्पूर्ण सृष्टी का,
गति के मति की स्थिति यही|
समर्पण है अंतिम पड़ाव,
इससे पहले कोई इति नहीं!
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