10.3.09
देखी हमरी काशी की होली !
आप सभी को होली की शुभकामनाएं। होली आते ही बरबस काशी के वो दिन याद आ जाते हैं जब भांग के नशे में धुत्त अस्सी पर हो रहे कवि सम्मेलन में झुंड बनाकर हर-हर महादेव का जयकारा लगाते हुए घूमते रहते थे। शाम को अस्सी के कवि सम्मेलन में वैसे तो सभी भद्र ही जुटते हैं मगर उस दिन किसी को मस्ती की तथाकथित अभद्रता से कोई भी परहेज नहीं होता। उस रोज के अभद्र शब्द अस्सी के कवि सम्मेलन के दिन शुभ माने जाते हैं। तभी तो भीड़ में कहीं दिखाई दे गए अपने परिचितों का सम्मान भी गाली से ही हम भी करते थे। मसलन अबे भोसड़ी के कहां घुस गया था जो अब दिखाई दे रहा है। उधर से जो जवाब आता था वह मैं .यहां मैं नहीं लिख रहा हूं मगर आप तो समझदार हैं, समझ ही गए होंगे। इस तरह के वाकए कवि सम्मेलन में होना आम बात थी। चलिए कुछ घटनाओं का जिक्र करते है जो आज भी जेहन में अपने अल्हणपन और काशी की होली की रंगीनियों को ताजा कर देते हैं। बुरा न मानो होली है की तर्ज पर सुनिए काशी की होली के मौके पर छात्रावास के दिन और अस्सी त्रिमुहानी पर हर साल होने वाले कवि सम्मेलन की आपबीती कथा। उस साल घरवालों से बीस बहाने बनाकर, पढ़ाई का वास्ता देकर काशी की होली और अस्सी का कवि सम्मेलन देखने छात्रावास में ही रूक गए। खाने का इंतजाम भी शहर में रह रहे एक मित्र के घर कर लिया था। अब तो बिंदास भी हो गए थे क्यों कि यहां घरवालों का खौफ भी नहीं रह गया था।
पहले अस्सी की एक घटना। मैं और मेरे कुछ दोस्त कवि सम्मेलन में हाजिर होने से पहले भांग जुटाने में इस कदर मसगूल हो गए कि समय का खयाल ही नहीं रहा। देर होते देख जो भंग मिली उसे चढ़ाई और कूच कर दिए अस्सी की ओर। पहुंचे तो मजमा जमा हुआ था। मंच पर उस वक्त के हीरो कवि चकाचक बनारसी रंग जमा रहे थे। उनकी कविताए मैं यहां पेश नहीं करूंगा क्यों कि वह सब अस्सी पर उनके मुखारविंद से भांग के नशे में ही सुनना श्रेयस्कर होगा। मेरी बातें सुनकर अगर आपकी तबियत फड़क रही है तो हुजूर आप खुद ही कभी होली पर अस्सी पहुंच जाइएगा। फिलहाल मेरी आपबीती सुनिए क्यों कि मैं भी सुनाने के लिए फड़फड़ा ही रहा हूं।
तो हुआ यह कि एक मेरे मित्र अस्सी पर ही रहते थे। उन्होंने हम लोगों को साक्षात देख लिया। गाली दी और पकड़ ले गए भंग पिलाने अपने घर। दूध में मिली भंग हम लोगों ने बेहिसाब चढ़ा ली। अब सबकुछ और रंगीन नजर आने लगा था। एक के दो दिखते और कोई कुछ बोलता तो समझ में आता नहीं, उल्टे मूर्खों की तरह बेहिसाब हंसते रहते थे। बहरहाल इसी दशा में अपने दोस्त को होली की शुभकामनाएं और धन्यवाद कहकर फिर आ गए कवि सम्मेलन के मजमे में।
यहीं वह घटना घटती है जो आज तक याद है। कुछ अश्लील है इसलिए बुरा न मानो होली है कि तर्ज पर सुनिए आगे की कथा।
भीड़ के बीचोंबीच तन्मय होकर होली की चुटीली कविताएं सुन रहे थे तभी कुछ हुल्लड़बाजों का एक झुंड हमारे करीब से हर-हर महादेव करते हुए गुजरा। उनके हाथों में कुछ पुस्तिकाएं थीं। होली से ही संबंधित थीं। इच्छा हुई कि एक मैं भी ले लूं। अपने गांव जाकर दोस्तों को दिखाउंगा। बहरहाल एक पुस्तिका मांग बैठा। उसने पुस्तिका हाथ में थमाकर पैसे मांगे। सरसरी तौर पर उसपर लिखे दाम पांच रुपए मैंने उसे पकड़ा दिए। पैसे लेकर उसने कहा- आपने पूरा दाम नहीं दिया। मैंने कहा- दे तो दिया हूं। रहस्यमय मुस्कराहट के साथ वह बोला-- फिर से देखिए। इस बार दाम ठीक से पढ़ा। लिखा था-- पांच रुपए और पांच गांड़। वह खिलखिलाकर हंस पड़ा मगर मुझे कुछ समझ में नही आया कि क्या बोलूं। कुछ बोलता इसके पहले उसने कहा- अभी रहने दीजिए फिर कभी फुरसत में ले लूंगा। और वह फिर हर-हर महादेव बोलते हुए आगे बढ़ गया। बहरहाल वह फिर साक्षात तो क्या सपने में भी नहीं आया मगर होली का यह वाकया और वह हुल्लड़बाज आज भी मुझे याद है।
अब छात्रावासों की गाली की एक परंपरा की वह कथा सुनिए जिसमें विभिन्न छात्रावासों के छात्र रोज शाम को खाना खाने के बाद छत पर या उस बाल्कनी पर जुटते थे जहां से दूसरा छात्रावास दिखता था। इसके बाद शुरू होता था गालियों का दौर। मेडिकल के छात्र कला संकाय के छात्रों को ललकारते थे-- अबे चपरासियों कहां छुप गए ? तो इधर से कला संकाय का हुजूम चिल्लाता था-- अबे जमादारों-- हरामियों --- नींद नहीं आ रही है क्या ? अभी कोई जवाब उनका आता तबतक तीसरे छात्रावास से गाली गूंजती-- अरे मादर----- क्यों लड़ रहे हो ? अब तीन चार छात्रावासों से एक साथ गालियों का जो दौर चलता तो देर रात तक थमने का नाम नहीं लेता। अगर थोड़ा सुनसान हो भी जाता तो किसी छात्रावास से अकेले ही कोई दूसरे छात्रावास को ललकार देता। फिर क्या था, दुबारा शुरू हो जाता गालियों का दौर। इधर छात्रावासों के सामने की सड़क से गुजर रहे लोग भी होली की गालियों की बौछार से अछूते नही बचते थे। यह सब रोजाना नियमित कुछ देर चलता और फिर स्वतः थम जाता। होली आगमन का यह नियमित मनोरंजन और देर रात तक गूंजती गालियां होली आते ही फिर जेहन में गूंजने लगती हैं।
इन सब के बीच खासियत यह थी कहीं से कोई सद्भावना का माहौल गड़बड़ नहीं होने पाता था। सुबह सभी ऐसे मिलते थे जैसे रात का नजारा उनके लिए सपना था। मगर रात होते ही वह कार्यक्रम फिर चालू हो जाता था। जिन डाक्टर मित्रों को हम रात में गाली देते थे सुबह वही हमारे किसी बीमार साथी का अपना सगा समझकर इलाज करते थे। हम सिर्फ होली मनाते और आपस में ऐसा मनोरंजन करके अपना छात्रावासीय एकाकीपन दूर कर लेते थे। आज तो लोगों में वह सद्भाव ही नही रहा। कई लोगों को यह कहते सुना कि क्या होली मनाएं, लोग अब उतने अच्छे नहीं रहे। आखिर वह कौन सी कड़ी है जो लगातार टूटती ही जा रही है और होली जैसे भाईचारे के त्योहार को फीका करती जा रही है।
dr.sahab aapki post padkar vakai kashi aur khas kr poorvanchal ki yaad aa gai.mai to delhi ke patrakarita ke daldal me fas gaya hoo.khair aise hi likhate rahe.aur apne mitti se door logo ko uski khoosboo se mahkate rahe-aapka dhirendra pratap singh-
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