सोचता हूँ , हल चलाता हुआ मंगरू मुझसे अच्छा है । उसे अपने काम का पता तो है न । वह मन से कर भी रहा है ।
मुझे तो बहुत कुछ पता ही नही और कुछ - कुछ पता है भी तो काम नही करता । मन से तो बिल्कुल ही नही ।
अवसर की आहट कई बार सुन कर भी अनसुना कर चुका हूँ , जिसका खामियाजा आजतक भुगत रहा हूँ । लगता है , कोई भी मंडप मेरे लिए नही सजेगा । मेरा कभी भी अभिषेक नही होगा । मै अकेला ही रह जाऊँगा । रातों में चाँदनी नसीब नही होगी ।
कोई राह नही कोई , कोई मंजील नही दिखती , गोल गोल घूम रहा हूँ । लगता है , आगे बढ़ रहा हूँ ।
क्या करू ,निर्दोष हिरणों को मारकर सेज नही सजा सकता ,
सो दुनिया से दो कदम पीछे रह गया ।
बछडे का हक़ मारकर पंचामृत नही बना सकता ,
सो प्यासा रह गया ।
चंदन तरु काटकर तिलक नही लगा सकता ,
सो आगे नही जा पाया ।
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