क्यों ! चौंक गए ना। आपको शायद यह शीर्षक उल्टा-पुल्टा लगा होगा। या तो लेखक सिरफिरा लगा होगा। लिखना चाहिए था "सुख के सब साथी दु:ख में ना कोय" यही बोल तो "गोपी" फिल्म में नायक ने गाया था, जबकि यहां लेखक ने लिख मारा "दु:ख के सब साथी सुख में ना कोय"। पर भाईजान मेरे हिसाब से आज के जमाने में यही शीर्षक सोलह आने खरा है। बोले तो गोलघर वाले सुनार की दुकान जितना। हमारे गोलघर वाले सुनार महोदय अक्षय तृतीया पर खरा सोना देने का दावा कर रहे हैं। यानि बाकी के दिनों में कैसा? वैसे तो हमारे देश की सबसे विश्वसनीय मानी जाने वाली बैंकिग संस्था भारतीय स्टेट बैंक ने भी सभी लोकप्रिय अखबारों में मोटे-मोटे अक्षरों विज्ञापन दिया है कि उनके यहां अक्षय तृतीया को अंतर्राष्ट्रीय मानक वाला खरा सोना रियायती दाम पर मिलेगा। पर मेरे हिसाब से गोलघर वाले सुनार से खरीदना ज्यादा अच्छा होगा। पूछो क्यों? अरे भाई, गोलघर वाले सुनार महोदय ने सोने के दाम का फुल फाइनेंस करने का भी तो वायदा किया है। यानि हमें किश्तों में इसका भुगतान करना पड़ेगा। है ना फायदे वाली बात। आजकल वैसे भी किश्तों पर सामान लेने का प्रचलन चल पड़ा है। जिसे देखो वो अपने जरूरत की चीजें थोड़ा पैसा खर्च करके किश्तों ले रहा है। टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, कार, बाइक सहित जितनी भी लक्जरी के सामान हैं, सभी तो आसान किश्तों पर मार्केट में उपलब्ध हैं। तो हम क्यों एकमुश्त रकम अपनी गांठ से खर्च करके सामान खरीदें। टीवी पर विज्ञापन देने वाली बहनजी भी कहती हैं - समझदारी इसी में है।
हां तो हम बात कर रहे थे शीर्षक की- "दु:ख के सब साथी सुख में ना कोय"। अपने आस-पास जरा निगाह उठाकर देख लीजिए। आपको इससे संबंधित ढ़ेर सारे उदाहरण बिना अधिक प्रयास के मिल जाएंगे। इसीलिए मेरा मानना है कि यह शीर्षक बिलकुल खरा है। चाहें तो किसी भुक्तभोगी की कसौटी पर रखकर इसे परख सकते हैं। ऐसे ही एक भुक्तभोगी से मेरी मुलाकात हुई। खैर-खैरियत का आदान-प्रदान हुआ। बातचीत के दौरान उसने बड़े ही गूढ़ रहस्य से मुझे अवगत कराया। बोले- शर्माजी, आप क्या सोचते हैं। क्या जो भी आपके दु:ख में शामिल होता है, वे सभी आपके शुभचिन्तक हैं? मैंने कहा-हां। उन्होंने कहा- नहीं, उनमें से अधिकांश आपके दु:ख का सुखभोग करने आते हैं। उनका ऊपर से मुख उदास, अंदर से मन उल्हास होता है। आप जितने ज्यादा दु:खी, वे उतने ज्यादा प्रसन्न होते हैं। वे आपके दु:ख में शरीक तो होते हैं। परन्तु बाहर निकलते ही आपके अवगुणों का बखान कर-करके अपनी भड़ास निकालते हैं। बड़ा सयाना बनता फिरता था। हाथ ही नहीं रखने देता था। अब मजा चखेगा। इसके विपरीत जहां आप प्रसन्नचित्त दिखे नहीं कि लगा उनके कलेजे पर सांप लोटने। आपको खुश देखकर वे बिचारे दु:खी हो जाते हैं। आज के जमाने में अगर किसी से पूछा जाए कि आप दु:खी क्यों हैं। वह कहेगा कि मेरा पड़ोसी सुखी है। इसी प्रकार किसी दिन वह प्रसन्न दिख जाए तो पूछा जाए कि वह इतना प्रसन्न क्यों है। वह कहेगा कि मेरा पड़ोसी बड़ा दु:खी है। आज के जमाने में सुख-दु:ख के अनुभव का पैमाना दूसरों के दु:ख-सुख पर आधारित हो गया है। पड़ोसी दु:खी हम सुखी, पड़ोसी सुखी हम दु:खी। मैंने उन सज्जन का इस गूढ़ रहस्य से परिचित कराने के लिए हृदय से आभार प्रकट किया।
मुझे एक कहानी भी याद आ रही है, जो बचपन में मेरे पिताजी ने मुझे सुनाई थी। एक कामी व्यक्ति था। कामी से मेरा आशय कामना रखने वाला चाहे, अपने हित की कामना रखता हो या किसी के अहित की। पहले के जमाने में भी अधिकांश तपस्वी किसी ना किसी के अहित की कामना लेकर ही तपस्या किया करते थे और अब भी करते हैं। हां तो उस कामी व्यक्ति ने भगवान शिव को तपस्या के लिए चुना क्योंकि वह जानता था कि भगवान शिव ही ऐसे भोले हैं, जो अत्यल्प तपस्या से ही प्रसन्न हो जाते हैं। इसमें सती (गौरी) की तपस्या अपवाद मानी जाएगी, क्योंकि उन्होंने शिव को पतिरूप में पाने के लिए हजारों वर्षों तक उनकी तपस्या की, तब जाकर शिव प्रसन्न हुए थे। इस घोर कलयुग में भगवान ने किसी मानव को इतनी ज्यादा आयु ही नहीं दी और आज के मानव के पास इतना फालतू समय ही नहीं है कि वह सौ वर्ष तक भी तपस्या कर सके। लब्बो-लुआब शिव उस कामी व्यक्ति की तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्होंने उससे कोई एक वर मांगने को कहा, परन्तु भगवान तो ठहरे अंतर्यामी। वे जानत-बूझते थे इस कामी की इच्छा। अत: उन्होंने जानबूझ कर एक शर्त भी जोड़ दी कि जो तुम अपने लिए मांगोगे उससे दूना तुम्हारे पड़ोसियांे और शुभचिन्तकों को स्वयमेव मिल जाएगा फ्री में। याचक परेशान। भगवान ने उसे यह किस दुविधा में डाल दिया। जिस इच्छा को लेकर उसने तपस्या की थी कि वह अपने पड़ोसियों और अपने इष्ट-मित्रों से अधिक सार्मथ्यवान, धनवान हो जाए। परन्तु भगवान ने तो सारा गुड़-गोबर ही कर दिया। तपस्या मैंने की परन्तु जितना मैं अपने लिए मांगूंगा उससे दूना उन लोगों को फ्री में मिल जाएगा। हाय रे ! भगवान की अद्भुत कृति ईर्ष्यालु जीव, उसने काफी सोच-विचार भगवान से कहा कि मेरी एक आंख फूट जाए। आगे क्या हुआ होगा आप जान ही गए होंगे। भगवान ने यह कैसा जीव पैदा कर दिया जो दूसरों अहित में ही अपना हित समझता है।
मैंने पुस्तकों में थ्यौरी पढ़ी है कि दु:ख में जो साथ निभाए वही आपका सच्चा मित्र, सच्चा साथी, सच्चा हितैषी होता है। पर अनुभव (प्रैक्टिकल) ने बताया कि दु:ख में शामिल होने वाले सभी आपके सच्चे मित्र, सच्चे हितैषी नहीं होते हैं। बल्कि उनमें से अधिकांश हितैषी की खाल ओढ़कर आपके घाव को कुरेद कर उस पर आयोडायज्ड नमक छिड़ककर परमानन्द का सुखभोग करने वाले होते हैं। ऐसा ही अपने को मेरा परम हितैषी घोषित करने वाले मेरे एक मित्र ने जब सुना कि मेरा एक्सीडेंट हो गया और उसमें मेरा पैर फ्रैक्चर हो गया। उसने मुझे फोन करके अपनी संवेदना प्रकट की और लगे हाथ एक सप्ताह पहले बीते हुए मेरे जन्मदिन की मुबारकबाद भी दे डाली। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मेरे इस शुभचिन्तक ने मुझे मेरे जन्मदिन पर अपनी संवेदना प्रकट करने के लिए फोन किया था या पैर फ्रैक्चर होने की मुबारकबाद देने के लिए। काफी मनन-मंथन करने के पश्चात मेरे मन ने मुझसे कहा कि वह मेरा सच्चा हितैषी है उसे मेरे जन्मदिन पर मुबारकबाद देने की फुरसत न मिली हो न सही। कम से कम उसने मेरा पैर फ्रैक्चर होने पर अपनी संवेदना प्रकट करने के लिए समय तो निकाल ही लिया। इससे एक बात तो सिद्व होती है कि वह मेरे सुख के दिन का साथी न सही दु:ख का तो साथी है ही।
आपको कुछ शुभचिन्तक अथवा परम हितैषी ऐसे भी मिल जाएंगे जो आपके दु:ख में घड़ियाली आंसू बहाते हैं, परन्तु जहां आपने उन हितैषी बंधु से किसी मदद, चाहे समय की हो या धन की या तन की, अपेक्षा की नहीं कि वे लगते हैं अपने को ब्रह्माण्ड का सबसे दीन-हीन एवं अभावग्रस्त बताने। वे अपनी विपदा की पोथी-पत्रा बांचने बैठ जाते हैं। अब आप सोचने लगते हैं कहीं हम भी इनके दु:ख की कल-कल बहती नदी के वेग में बह ना जाएं। आपको झट से अपना आवेदन वापस लेना पड़ता है और बड़े विनम्र भाव से, परन्तु अंदर से कुढ़ते हुए, उनसे कहना पड़ता है कि आप आए, दु:ख में शामिल हुए, अपनी संवेदनाएं प्रकट की, मेरे घाव पर नमक सॉरी मरहम लगाया, शहद से भींगे हुए दो फ्री के मीठे बोल बोले यही हमारे लिए दुनिया की सर्वश्रेष्ठ शुभकामना है। आपका वह अनन्य मित्र, परम हितैषी भी मन ही मन ईश्वर को लाख धन्यवाद देगा कि चलो मदद-वदद की बला से छुटकारा मिला। वरना फालतू में धन-जन-तन की बाट लग जाती।
आजकल मैं भी अपने अनुभव का लाभ अपने ईष्ट मित्रों में धड़ल्ले से बांटने में लग गया हूं। इससे मुझे भी एक अनिर्वचनीय आत्मिक सुख का अनुभव होता है। मस्तराम जी, कहने को तो मेरे परम मित्र हैं, पर उनको मुझे दु:खी देखना बड़ा रास आता है। जबसे मुझे उनकी इस अभिलाषा के बारे में ज्ञान हुआ, तब से मैंने भी उनको प्राय: दु:ख के झटके देना प्रारम्भ कर दिया है। एक सुबह वे मॉनिंग वॉक पर मिल गए। बोले कैसे हैं शर्माजी ! आज मैंने उनको झटका देने का पूरा प्लान बना रखा था। अत: चहक कर बोला- बड़ी गुड न्यूज है। मेरा छोटा बेटा कल अपनी क्लास में 93 प्रतिशत अंको से पास हुआ है। मैं जानता हूं कि उनका सुपुत्र कभी भी 60 प्रतिशत अंकोंे से उबर नही पाया है। अत: मेरा दमकता चेहरा देख कर उनको हांफी चढ़ गई। उच्च रक्तचाप की शिकायत महसूस करने लगे। लगा अभी मूर्छित हो जाएंगे। उनकी यह दशा देखकर मेरे तुरन्त ही उनके कान में कहा कि पर मेरे बेटे की क्लास में सातवीं पोजीशन आई है। छ: बच्चे उससे ज्यादा अंक पाए हैं। इतना सुनना था कि आश्चर्यजनक रूप से मस्तराम जी की हालत में सुधार होने लगा। धीरे-धीरे वे सामान्य पोजीशन में आ पाए।
इसी तरह मेरे एक और अजीज है छठी प्रसाद जी। वे भी मस्तराम जी की तरह ही दूसरों के दु:ख में सुख और सुख में दु:ख का अनुभव करने वाले जीव। मैं उन्हें भी अक्सर सुख और दु:ख का मजा चखाता रहता हूं। इससे मुझे भी एक अनोखे मानसिक सुकून का अनुभव होता है। देखा जाए तो मैं भी तो उसी ईश्वर की कृति हूं जिसकी हमारे अन्य ईष्ट-मित्र। इसलिए मुझे भी दूसरों को दु:खी करके प्रसन्नता होती है जो कि स्वभाविक ही है। मैं जिस विभाग में कार्यरत हूं। मेरे द्वारा किए गए सर्वश्रेष्ठ कार्य (संगी-साथियों की नज़रों में तेल लगाने) के लिए मेरे अधिकारी द्वारा विभाग के सर्वोच्च पुरस्कार के लिए विगत कई बार से मेरे नाम को संस्तुत किया जाता था। परन्तु किन्हीं कारणों से मेरे नाम पर विचार नही हो पाता था। इसकी सूचना पाकर मेरे कथित संगी-साथियों को अपार हर्ष होता था, उनमें हमारे छठी प्रसाद जी सबसे आगे रहते थे। वे अपने खिले हुए थोबड़े के साथ अपनी संवेदना प्रकट करने मेरे पास अवश्य आते थे और मैं अंदर ही अंदर कुढ़ कर रह जाता था। इस बार भी मेरा ही नाम पुन: सर्वोच्च पुरस्कार के लिए नामित किया गया। छठी प्रसाद जी एंड कंपनी को पूरा विश्वास था कि इस बार भी विगत वर्षों की भांति ही हश्र होगा। वे आश्वस्त थे। पर इस बार प्रसन्न होने की बारी मेरी थी। जैसे ही छठी प्रसाद जी एंड कंपनी के लिए इस अशुभ समाचार की सूचना विभाग में आई। लगा छठी प्रसाद जी को फालिज मार जाएगा। वे संज्ञाशून्य होकर मेरा दमकता चेहरा देख रहे थे। उनको दु:ख के सागर में गोता लगाते देखकर मैं भी मन ही मन प्रसन्न हो रहा था। अन्त में उनको और अधिक दु:खी करने उद्देश्य से मैंने उनसे कहा- क्यों मित्र ! क्या मुझे बधाई भी नहीं दोगे। उन्होंने बुझे मन से मुझे बधाई दी। उनका बुझा चेहरा देखकर मेरा मन-मयूर नाच रहा था।
ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव रूपी यह जीव वाकई बड़ी ईर्ष्यालु है। यह दूसरों के दु:ख में सुखी और दूसरों के सुख में दु:खी होता है। यह ईर्ष्यावश दूसरों के सुख को शेयर नही करता और यदि करता भी है तो मात्र दिखावे के लिए। परन्तु किसी के दु:ख में सुखलाभ लेने के लिए अवश्य ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है और जरूरत पड़ने पर घड़ियाली आंसू बहाने में भी गुरेज नहीं करता है। इसीलिए मेरा मानना है- दु:ख के सब साथी सुख में ना कोय।
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दुख के सब साथी सुख में न कोय, इसी टायटल से मेरा एक व्यंग्य तीन वर्ष पूर्व मधुमती में प्रकाशित हुआ था। यह व्यंग्य मेरी नवीनतम पुस्तक - हम गुलेलची में भी संकलित है।
ReplyDeleteसर जी बिल्कुल इसी षीर्शक से मैंने भी बहुत पहले एक व्यंग्य लिखा था जो कि मेरे ब्लाॅग http://kmmishra.wordpress.com/ पर इस लिंक में ‘http://kmmishra.wordpress.com/2008/11/16/a-hasya-vyangya-on-jealousy/’ पड़ा हुआ है । जान कर खुशी हुई कि हमारे आपके विचार काफी हद तक मिलते जुलते हैं ।
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