15.4.09

कहाँ रह गया दिल...

कोलकाता से लौट तो आयी,

पर दिल मेरा वहीँ रह गया

उन किताबों में जो

धूल की चादर लपेटे मेरा इंतज़ार

करती रही पल पल

कहीं मीर उल्टे पड़े थे,

कहीं ग़ालिब को टेक लगाना पड़ा था

अगर कोई हँसता था मुझे देख कर

वह था अलमारी में विराजमान

तोल्स्तोय का संसार

गोर्की भी इसी पनाहगार में आनंद से थे,

कोई तकलीफ में था तो

वह मेरा रंगों का पोतला,

जिसकी बूंदों से कैनवास रंगीन बन जाता था,

मेरे भीतर का सृजक कभी देवी सूक्त,

तो कभी विज्ञानं की दुनिया सजाता था

और वो नोट बुक वैसी ही पड़ी है,

जिनमे समेटा है कुछ धुनों का जादू,

जिसने हर मोड़ पर मुझे न होने दिया बेकाबू

अब भी बहुत कुछ है उस कोने में ,

जो मेरा हमसाया हुआ करता था

हर रुदन में वो दोस्त की तरह

समझाया-बुझाया करता था

लौट तो आये पिंक सिटी में,

मगर जिस्म आ गया, दिल रह गया

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