शशि शेखर
दागदारों ने बना दिया है शिक्षा को धंधा एक तरफ जर्मनी में वांटेड है एमिटी के निदेशक चौहान बंधु और इनके ख़िलाफ़ इंटरपोल से जारी है रेड कॉर्नर नोटिस तो दूसरी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ प्लानिंग मैनेजमेंट (आईआईपीएम,दिल्ली) के खिलाफ वित्त मंत्रालय में कर चोरी की शिकायत तो है ही इसके साथ कई और आरोपों से भी घिरा है ये संस्थान। अपना पन्ना के अंक में आरटीआई की मदद से इन शिक्षण संस्थानों की खबर लेती ये रिपोर्ट:
एमिटी--
भारतीय संस्कृति में गुरु को गोविंद यानि भगवान से भी ऊंचा दर्जा प्राप्त है और शिक्षण संस्थानों का महत्व किसी मंदिर से ज्यादा। लेकिन बाजारवाद के दौर में जब शिक्षा के इसी मंदिर को दुकान बनाकर गुरु खुद दुकानदार बनकर जाएं और फ़िर नैतिकता की बात करे, तो इसे क्या कहेंगे? कुछ ऐसा ही मामला दिल्ली और एनसीआर में फल-फूल रहे निजी शिक्षण संस्थानों का है जो हजारों बच्चों और उनके मां-बाप को सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हैं जबकि खुद सपनों के इन सौदागरों का भूत और वर्तमान इतना दागदार है जिसे जानना देश का भविष्य कहलाने वाले बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए बेहद जरुरी है। अपना पन्ना के पास सूचना का अधिकार कानून की मदद से निकाले गए जो दस्तावेज हैं उससे इन शिक्षण संस्थानों और इसके निदेशकों की असलियत का साफ-साफ पता चलता है।
राज्य सभा में पूछे गए एक प्रश्न का हवाला देते हुए सूचना कानून के तहत विदेश और गृह मंत्रालय से एमिटी के निदेशक अशोक कुमार चौहान और अरुण कुमार चौहान के संबंध में कुछ सवाल पूछे गए थे। सीबीआई की तरफ से उपलब्ध कराए गए दस्तावेज के मुताबिक चौहान बंधुओं का नाम जर्मनी के वांटेड की लिस्ट में शामिल है और इनकी गिरफ्तारी के लिए बकायदा इंटरपोल ने रेड कॉर्नर नोटिस भी जारी किया हुआ है। इसके अलावा इनके प्रत्यर्पण के लिए जर्मनी ने भारत सरकार से अनुरोध भी किया है। हालांकि अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी है। वजह, 2005 में चौहान बंधुओं ने देश के अंदर अपने खिलाफ आपराधिक मामला नहीं चलाए जाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की थी और उच्च न्यायालय ने प्रत्यर्पण संधि की धारा (६) के मुताबिक देश के अंदर इनके खिलाफ आपराधिक मामला नहीं चलाने का अंतरिम आदेश 31-05-2005 को दे दिया।
दरअसल ये पूरी कहानी 90 के दशक में शुरु होती है जब चौहान बंधु जर्मनी में रहा करते थे और एकेसी बिजनेस ट्रस्ट चलाते थे। इस ट्रस्ट के अंतर्गत लगभग 40 कंपनियां काम कर रही थीं। साल 1993-1994 के दौरान चौहान बंधुओं पर जर्मनी के कुछ बैंकों से धोखाधडी कर लेने का आरोप लगा और जिसके चलते उन बैंकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद दोनों ने भारत आ कर शिक्षा के क्षेत्र में हाथ आजमाने का फैसला किया। और आज एमिटी नाम से दर्जनों स्कूल,कॉलेज दिल्ली और एनसीआर में चल रहे हैं।
आईआईपीएम,दिल्ली-
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ प्लानिंग मैनेजमेंट यानि आईआईपीएम जो अपने विज्ञापनों के माध्यम से छात्रों को आईआईएम से हट कर सोचने को कहती है और जिसके पाठ्यक्रम का नाम भले ही एमबीए हो (एमबीए डिग्री के साथ एक तारा भी चमकता दिखाई देता है,जिसका विशेष अर्थ कहीं कोने में लिखा होता है) लेकिन पढ़ाई प्लानिंग और इंटरप्रेन्योरशिप की होती है। सूचना का अधिकार कानून के इस्तेमाल से निकाले गए दस्तावेज के अनुसार आईआईपीएम का कोई भी पाठ्यक्रम यूजीसी (विश्व विद्यालय अनुदान आयोग) और एआईसीटीई से मान्यताप्राप्त नहीं है। सूचना कानून के तहत दिए अपने जवाब में यूजीसी ने माना है कि संस्थान द्वारा चलाए जा रहे कोर्स के संबंध में उसे शिकायत मिली है और इसके बारे में कारण बताओ नोटिस भेजे जाने की तैयारी की जा रही है।
इसके अलावा आईआईपीएम पर वर्ष 2005-06, 2006-07 के दौरान आयकर कानून, 1961 की धारा 10(23सी) के तहत छूट पाने के लिए गलत दावे करने की शिकायत भी वित्त मंत्रालय को मिली थी। जनवरी 2008 को मंत्रालय की तरफ से सूचना कानून के तहत उपलब्ध कराए गए दस्तावेज में बताया गया है कि इस मामले की जांच की जा रही है और इस शिकायत को आगे की जांच के लिए इसे आयकर महानिदेशक(छूट) के पास भी भेज दिया गया है।
शिकायतों की फेहरिश्त यहीं खत्म नहीं होती है। कारपोरेट कार्य मंत्रालय में भी आईआईपीएम के खिलाफ शिकायत पहुंची थी जहां महानिदेशक (आई एंड आर) ने अपनी प्रारंभिक जांच रिपोर्ट एकाधिकार तथा अवरोधक व्यापारिक व्यवहार आयोग (एमआरटीपी आयोग) के पास जमा करा दिया था और 3 मार्च 2008 को आयोग में इसकी सुनवाई होनी थी।
ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि जिनके खुद के दामन पर छींटे पड़े हो और धोखाधडी, कर वंचना जैसा संगीन आरोप हो वो क्या और कैसी शिक्षा हमारे बच्चों को दे रहें होंगे? आखिर क्यों ऐसे लोगों को शिक्षण कार्य शुरु करने की इजाजत दी जाती है? शायद उदारीकरण के उस शुरुआती दौर में जब कुकरमुत्तों की तरह दर्जनों प्राइवेट शिक्षण संस्थान पनपने लगे थे, तब सरकार ने भी मानो अपनी आंखें मूंद ली थीं और बिना आगे-पीछे का कोई रिकॉर्ड देखे ऐसे संस्थानों को मंजूरी दे रही थी।
सूचना के अधिकार के मासिक अपना पन्ना के अप्रैल अंक में प्रकाशित
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