इस रोड पर इस कदर कीचड़ पडी है हर किसी का पाव घोटूंओ तक सना है शायद कभी दुष्यंत कुमार ने यह नहीं सोचा होगा की उनकी लिखी हुई पंक्तिया अपने देश के किसी पर ठीक बैठेंगी इस देश में मातम है, या हर किसी को मातम में जीने की आदत पड़ गई है,सुबह के 11:30 बज रहे है ,मैं मोजूद हूँ अपने न्यूज़ रूम में जहा से अपना ब्लॉग टाइप कर रहा हूँ ,मन में बार बार यही सवाल कोंध रहा है की क्या होगा .टॉप मेनेजमेंट बार यही कह रहा है की अब छटनी नहीं होगी ,.लेकिन टॉप का मतलब टॉप ही होता है खैर एक बड़े न्यूज़ रूम से बड़े न्यूज़ स्कूल का मतलब क्या होता है क्या आपका भविष्य एक नई परिभाषा को रच देगा ,आप की ज़िन्दगी उन मुकामों की कहानी रच देगी जिसके बारे में आपने और मैंने कभी नई सोचेगा ...आज तक ,न्यूज़ २४ ,वौइस् ऑफ़ इंडिया .और अब NDTV की दुकाने अब सजने लगी है जहा पर सपने बिकते है जहा हर रोज़ नए सपने जिस तरीके से दाखिल होते है उससे कही बुरी तरह वो टूट जाते है ,कुछ ऐसा ही हो रहा है ,आज हमारे साथ PKG 15000 जब हम एक बड़े न्यूज़ चेनल के एक बड़े स्कूल के दाखिल हुई तो कुछ सपने मैंने भी देखे थे ,उम्मीद करता हूँ मेरी माँ ने भी कोई ख्वाब देखा हो क्योकि ख्वाब तो वो आँखें देखती है जो कभी सोती हों ,लेकिन उन आँखों का क्या जो कई मुद्दतों से सोई ही ना हो ,मेरे माँ भी कुछ ऐसी है ,मेरे तरह से सेकडों लोग ऐसे है जो अपने सपनो को हर रोज़ यहाँ लुटते हुए देख रहे है ,सिर्फ देख रहे है हम कुछ नहीं कर सकते है ,कईयों के सपने टूट गए ,कई लोग ऐसे है जो अपने घर में सबसे बड़े है वो जिनके घर में कोई बड़ा नहीं था जो अपनी पूरी ज़मीन बीस हज्जार में बेच कर आये थे ,अपने सपनो को खरीदने के लिए ........लेकिन उन्हें अभी पता लगा है की उनको चेनल से निकाल दिया जायेगा ,बिना किसी कारण .हम कुछ नहीं कर सकते HR के पास जा जा कर अब थकावट महसूस होने लगी है .जिन लोगो ने ब्याज पे पैसा लिया था वो अब दुगना हो गया है ,कुछ ऐसे भी है जिनके पास कल के खाने के लिए रोटी नहीं है कुछ ऐसे भी जो अपने घर जाना नहीं चाहते ,क्योंकि उनको याद आते है वो पल जो वो घर से आते वक्त वो अपनी माँ के सीने से लिपटकर सजाकर आये थे ,मैं भी सोच रहा था की उन सपनो का क्या होगा ,शायद हमारा भविष्य उस बिसात पर चल रहा है जहा मोहरे के भूमिका पर हम और चलाने वालो की भूमिका किसी और की है ,मैं जानता हूँ कि खामोशी भी बोलती है... कि बहते हुए आंसुओं से ज्यादा तकलीफ पलकों पर ठहरे मोती पैदा करते हैं...कि रुलाइयों से ज्यादा असरदार भिंचे हुए होठों के पीछे छुपाए गए दुख होते हैं।जाहिर है भक्त मीडिया और बाजार का यह रिश्ता पहले से मजबूत हुआ है और आगे भी होता रहेगा। हम अजीब लोग हैं। उपभोग और आध्यात्म को साथ साथ जीते हैं। दोनों से कोई टकराव नहीं बल्कि दोनों से हमारा एक समझौता है। मैं नही जानता की कहानी क्या रंग लाएगी ,लेकिन इतना जरुर है की लोकतंत्र का यह कौन सा प्रहरी है जो आज अपने दुकानों को सज़ा रहा है जहा हर रोज़ सपनो को बेचा जा रहा है ,लेकिन शर्मशार उस वक्त होते है जब इन दुकानों में हम सब नीलाम हो रहे है कबाडे के भाव ,सवाल मेरे नही सवाल उन लोगों का जो अपनी ज़मीन बेचकर अपना सब कुछ बेचकर इन दुकानों में आए थे ,......................
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