10.6.09
घर का नहीं समाज का तो है
एक घटना,जिसका मेरे,हमारे परिवार,हमारे खानदान से किसी प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके बावजूद इस घटना ने मुझे विचलित कर दिया। बात को थोड़ा पीछे ले जाना होगा। एक मां-बाप ने एक घर में अपने बेटे -बेटियों को पाला, उनके विवाह कर उनको समाज में गृहस्थी चलाने के लिए स्वतन्त्र किया। मां-बाप एक बड़े मकान में रहते थे। ऊपर वाली मंजिल में उनका बेटा अपने परिवार के साथ। बाप रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी,जिसको अच्छी पेंशन मिलती है। घर में बाप-बेटे,सास-बहु में थोडी बहुत खटपट होती होगी, जैसी लगभग हर घर में होती रहती है। मकान बाप का। यह सब कुछ बाप ने अपनी मेहनत से बनाया। बेटों का इसमे कोई योगदान नहीं। एक दिन देखा कि उनके घर के आगे एक वाहन में घर का सामान लदान किया जा रहा था। सोचा, बेटा अपने परिवार को लेकर जा रहा होगा। लेकिन बाद में मालूम हुआ कि बेटा नहीं बाप अपना सामान लेकर कहीं ओर चला गया। छोड़ गया वह घर जो उसने सालों की मेहनत से बनाया था। इसी घर में उसने अपने बच्चों को खेलते,प्यार करते लड़ते देखा था। त्यागना पड़ा उस घर को, जिसके ईंट गारे में, उसकी ना जाने कितनी मधुर स्मृतियाँ रची-बसी थीं। वही घर उनके लिए अब पराया हो गया था।बाप होने का यह मतलब है कि वह सब कुछ खोता ही चला जाए! एक पिता होने कि इतनी बड़ी सजा कि उसको वह दर छोड़ के जाना पड़े जहाँ उसने अपनी पत्नी के साथ अपना परिवार बनाया,घर को उम्मीदों,सपनों से सजाया संवारा। फ़िर बाप भी ऐसा जो किसी बच्चे पर बोझ नहीं। उसकी पेंशन है। वैसे भी वह अपनी पत्नी के साथ अलग ही तो रहता था। क्या विडम्बना है कि आदमी को अपने ही घर से यूँ रुसवा होना पड़ता है। क्या मां-बाप इसलिए पुत्र की कामना करते हैं?केवल यह उनके घर का मामला है,यह सोचकर हम चुप नहीं रह सकते। क्योंकि यह हमारे समाज का मामला भी तो है। ठीक है हम कुछ कर नहीं सकते ,परन्तु चिंतन मनन तो कर सकते हैं,ताकि ऐसा हमारे घर में ना हो।सम्भव है कसूर मां-बाप का भी हो। हो सकता है उन्होंने संतान को सब कुछ दिया मगर संस्कार देना भूल गए हों।
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