-अनिल जनविजय-
पूरा देश यह मान रहा है कि लालगढ़ पर माओवादियों ने कब्जा कर रखा है और सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करके बहुत जनहित का काम कर रही है. ये वो खबरें हैं जो हमें बताई जा रही हैं. लेकिन बहुत कुछ ऐसा है जिसे छिपाया जा रहा है. कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा है कि लालगढ़ में संग्राम शुरू ही क्यों हुआ? लालगढ़ के इस इलाके में जिंदल स्टील प्लांट अब तक का सबसे बड़ा स्टील प्लांट होगा. मूलतः संथाल आदिवासियों का यह इलाका इसका विरोध कर रहा है. अगर सिंगूर और नंदीग्राम में अपनी जमीन के लिए लड़ी गयी स्थानीय लोगों की लड़ाई सही थी तो लालगढ़ की लड़ाई गलत कैसे हो गयी?लालगढ़ में संघर्ष चल रहा है बचे रहने का और उजाड़ दिये जाने का, पर लालगढ़ के संथाली आदिवासियों का उजड़ना महज़ देश के सबसे बड़े आदिवासी समाज के एक हिस्से का उजड़ना भर नहीं है. बल्कि यह संथाली समाज का अपने उस प्राचीन भूमि से उजाड़ा जाना है जहाँ वह पहली बार आकर बसा था और यहीं से पूरे देश में फैला था. देश में आज भी सबसे बड़ी संख्या संथाली आदिवासियों की है. तथाकथित सभ्य समाज के निर्माण व सालबोनी सेज परियोजना के निर्माण की प्रक्रिया में जुटे लोग जब आज इन्हें इनकी जमीन से विस्थापित करने पर आतुर हैं तो उसके खिलाफ इन आदिवासी महिला पुरूषों का लामबंद होकर विद्रोह करना लाज़मी है.
अपने जंगल और जमीन को छीने जाने के खिलाफ आदिवासियों का यह पहला विद्रोह नहीं है. इसके पहले अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिरसा मुंडा, तेभागा, तेलंगाना आदिवासी विद्रोह की एक लंबी सूची है पर ये विद्रोह आदिवासियों द्वारा राज्य सत्ता हथियाने को लेकर कभी नहीं किये गये बल्कि इनका स्वरूप अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने को लेकर ही रहा. पूरे देश में जंगल का एक लम्बा क्षेत्र है जहाँ आदिवासी समाज बिना किसी स्वास्थ, शिक्षा, बिजली के जी या मर रहा है. बारिस के दिनों में बाढ़ व मलेरिया से कितने आदिवासी मर जाते हैं
लालगढ़ का सालबोनी प्रोजेक्ट में जंगल की ५००० एकड़ जमीन को लिया जा रहा है जबकि वन प्राधिकरण नियम के तहत भी यह गैर कानूनी है. ५०० एकड़ जमीन जिंदल स्टील कम्पनी के मालिक द्वारा वहाँ के लोगों से औने-पौने दाम पर खरीदी जा चुकी है पर लोगों को इसकी आधी ही कीमत चुकायी जा रही है और आधी कीमत कम्पनी शेयर के रूप में देने की बात कहकर टाल दी गयी है. जबकि ४५०० एकड़ जमीन जिसे सरकार लेने पर तुली है लोग छोड़ना नहीं चाहते जिसको लेकर वहाँ के आदिवासी एक जुट हो गये हैं. अपने जंगल और जमीन को लेकर हुई एक जुटता व प्रतिरोध को ही माओवाद के रूप में या किसी आतंक के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, क्योंकि सरकार की दमन नीति व सेना के सशस्त्र कार्यवाहियों से लड़ने के लिये वहाँ के आदिवासी भी हथियार उठा चुके हैं.
दरअसल सरकार द्वारा जंगल के संसाधनों को पूंजीपतियों के हाँथों में सौंपे जाने पर हो रहे किसी भी प्रतिरोध के दमन का यह नायाब तरीका पिछले कई वर्षों से अपनाया जा रहा है कि वह जल, जंगल, जमीन से जुडे़ आदिवासी प्रतिरोध में माओवादियों का हाथ बताकर आदिवासियों या नागरिकों की हत्यायें व प्रताड़ना का लाइसेंस प्राप्त कर लेती है. ऎसी स्थिति में जंगल का एक बडा़ आदिवासी समाज माओवादी बनाया जा रहा है ताकि सरकार जंगल अधिग्रहण के खिलाफ होने वाले प्रतिरोध का दमन माओवाद के नाम पर आसानी से कर सके. 22 नवम्बर 2008 को बुद्धदेव भट्टाचार्य ने २४ परगना में भाषण देते हुए लालगढ़ में माओवादियों के होने की बात इसीलिये ही कही थी ताकि वे केन्द्र से ज्यादा अर्धसैनिक बल व विशेष रकम मांग सकें.
आज जब इस बात का शोर मचाया जा रहा है कि लालगढ़ में माओवादियों का कब्जा हो चुका है तो लालगढ़ में लोगों द्वारा शस्त्र उठाने की पूरी प्रक्रिया पर हमे गौर करना होगा. आदिवासी जंगल की जमीन दिये जाने के खिलाफ थे. इसके बावजूद रामविलास पासवान और बुद्धदेव भट्टाचार्य ने 2 नवम्बर 2008 को सालबोनी स्टील प्लांट का उद्घाटन किया जिसके पश्चात इनके काफिले पर हमला हुआ. इस हमले के फलस्वरूप लालगढ़ के आस-पास के तकरीबन ३५ गाँवों में पुलिस द्वारा लोगों को प्रताड़ित किया गया, उन्हें मारा पीटा गया व महिलाओं की आँख तक फोड़ दी गयी,परियोजना के खिलाफ गाँवों को एक जुट करने वाले युवाओं की हत्या तक कर दी गयी और यह सब माओवादियों का ठप्पा लगाकर किया गया. यदि अपने जमीन और जंगल को बचाने के लिये प्रतिरोध करना माओवाद है तो इतिहास का हर आदिवासी विद्रोह ऐसे ही अपने अस्तित्व की सुरक्षा के साथ हुआ है . जिन बिरसा मुंडा और दूसरे लड़ाकों को वर्तमान सरकार नायक के रूप में स्थापित करती है पर फर्क इतना जरूर है कि वह अंग्रेजी व सामंती सत्ता के खिलाफ था और यह वर्तमान लोकतांत्रिक कही जाने वाली व्यवस्था के खिलाफ है .
इतने दमन के बावजूद आदिवासियों ने जो मांग रखी वे बहुत ही सामान्य थी. उनका कहना था कि पुलिस दमन को खत्म किया जाए, लोगों पर जो आरोप लगाये गये हैं वे वापस लिये जाएं, जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है उन्हे रिहा किया जाय, साथ में उन स्कूलों, हास्पिटलों व पंचायतों को मुक्त किया जाए जिनमे अर्ध सैनिक बलों ने डेरा डाला हुआ है जो कि कलकत्ता हाई कोर्ट का भी आदेश था. जनदबावो के तहत सरकार ने यह बात मंजूर भी कर ली पर यह लोगों के लिये एक छलावा साबित हुआ. सरकार महज़ उनकी लामबंदी को कम करना चाहती थी. अंततः लोगों ने ७ जनवरी 2009 को सरकार के सामाजिक बहिष्कार यानि क्षेत्र में सरकार की किसी भी संस्था के प्रवेश को वर्जित करने का फैसला लिया, लोगों ने किसी भी तरह के कर व मालगुजारी देने से भी मना कर दिया है. यह सरकार के लिये एक भयावहस्थिति थी जिससे निपटने के लिये सरकार ने छ्त्तीसगढ़ में चल रहे सलवा-जुडुम के तर्ज पर जन प्रतिरोध कमेटी व आदिवासी ओ गैर आदिवासी एकता कमेटी का निर्माण किया गया जिसमें सी.पी.एम. व झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के लोगों को शामिल किया गया है. ये सैकड़ों की संख्या में जाकर गाँवों को लूटते है व लोगों को मारते पीटते हैं .इसी कारणवश लोगों का आक्रोश और भी उभर कर सामने आया है.यद्यपि सी.पी.एम. सरकार इस समस्या का राजनीतिक हल निकालने की बात कहती रही है पर राजनीतिक हल के तौर पर उसने सिर्फ दमन ही किया है ताकि वह लालगढ़ को भेद सके.
लालगढ़ में जारी असंतोष संथाली समाज के वंचना की पीड़ा है जिसमे विकास के नाम पर हर बार उनका उजाड़ा जाना, उनकी जमीनों को पूजीपतियों के हाथ में बेचा जाना, जिसके बाद नदियों का नालों में बदल जाना तय है. क्योंकि जिस स्टील प्लांट को जिंदल यहाँ स्थापित करना चाहते हैं वह एक बड़ी परियोजना है जिसके शुरूआती दौर में ही ३५,००० करोड़ रूपये लगाये जा रहे हैं व २०२० तक एक करॊड़ मैट्रीक टन के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है जिससे आस-पास के तीन जिले व सुवर्ण रेखा नदी जो वहाँ के लोगों की जीवन रेखा भी है का प्रदूषित होना तय है. अतः यहाँके लोगों के पास सिवाय विरोध के कोई रास्ता नहीं बचता क्योकि सरकार इनकी उन मांगों को भी लागू नहीं कर पा रही है जो मूलभूत अधिकारों के तहत मिलनी चाहिये जिसमे रोजगार, संथाली भाषा और संस्कृति को बढ़ावा दिया जाना, व बेहतर स्वास्थ, शिक्षा, व कृषि की सुविधा जैसी १३ मांगे शामिल हैं. पर इनकी मांगे लाठियों से पूरी की जा रही हैं. ऎसे में एक बडे़ क्षेत्र में विस्तृत संथाली आदिवासियों का एक जुट होकर प्रतिरोध करना दमित की एकता है.
(लेखक अनिल जनविजय महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में मीडिया के छात्र हैं. उनसे संपर्क करने के लिए chandrika.media@gmail.com पर मेल कर सकते हैं)
जनाब क्षमा करे, मैं इस बारे में आपके अधिकाँश तथ्यों से सहमत नहीं हूँ ! चाहे वह कोंग्रेस हो अथवा बामपंथी सरकार, मैं दोनों की नीतियों का घोर विरोधी हूँ लेकिन आपको यह भी ध्यान रखना होगा कि दोषारोपण कर देना इस दुनिया में सबसे आसान काम है ! जब आप सार्वजनिक मंचो पर पूंजीवाद और आदिवासियों का रोना रोते है, तो यह भूल जाते है कि यही पूंजीवाद है जिसके सहारे आज आप खुद भी महात्मागांधी स्नातकोतर महाविद्यालय में पढ़ रहे है, वर्ना तो आपके पूर्वज भी आदिवासी थे, सीमित इच्छावो संग जंगलो में विचरण करते थे, फिर आपके शहर आकर पढने का क्या तुक ? जिस संथाल आदिवासी के कवच तले आप मावोवाद और नक्सलवाद को एक मुलायम दर्जा देने की कोशिश कर रहे है, आप भूल रहे है कि ये तथाकथित 'वाद' आधुनिक युग में मानवता के सबसे बड़े दुश्मन है ! आप तो भाग्यशाली थे जो इतने बड़े विद्यालय में पढ़ रहे है, कभी आपने सच्चे मन से उन आदिवासियों के बारे में सोचा है जिन्हें आप यानी मावो/नक्सली अपने स्वार्थ पूर्ती के लिए जंगली ही बने रहने देना चाहते है ! अगर आपको उन आदिवासियों के उत्थान की जरा भी चिंता होती तो आप उनकी आसपास स्थित विद्यालयों, अस्पतालों, , संचार और यातायात के साधनों, रेलवे स्टेशनों, उद्योगों इत्यादि को निशाना बना कर उसे विस्फोट से उड़ते नहीं ! आप पढ़े लिखे इंसान है, जरा इमानदारी से बतावो कि इस संस्थानों को उड़ा देने से क्या उन संताल आदिवासियों का उत्थान हो जाएगा ?
ReplyDeleteएक कहावत है कि बलशाली निर्वल का शोषण करता है, वही इन अनपढ़, गवार आदिवासियों के साथ आप जैसे चंद लोग जो थोडा पढ़ लिख गए है, अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए उनका शोषण कर रहे है ! पहले कोंग्रेस ने किया , फिर बामपंथियों ने किया, और अब नक्शली कर रहे है, और पिस सिर्फ वह आदिवासी रहा है, पिस उस सुरक्षा बल का परिवार रहा है जिसने अपना बेटा रोजी रोटी के खातिर देश सेवा में सी आर पी ऍफ़ में भर्ती कर दिया ! आप लोग तो वातानुकूलित कमरों में बैठ ऐसे बड़े-बड़े लेख लिख सकते है और रिमोट के जरिये सडको से गुजर रहे सैनिको के काफिले को बारूदी सुरंगों से उड़ा सकते है, बस !