प्रात : दुल्हन सी किरणें
है नीरज को छू लेती ।
अलि समझे इससे पहले
परिरम्य-मुक्त कर देती ॥
चम्पक पुष्पों की रेखा,
मन को आडोलित करती।
नित नूतन ही उसकी,
सन्दर्भ विवर्तित करती॥
अलकें कपोल पर आकर,
चंच; हो जाती ऐसे।
विधु -रूप-सुधा भरने को
दौडे धन शावक जैसे॥
-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''
No comments:
Post a Comment