-गोविन्द माथुर
सफल होने पर कोई चिंतन नहीं करता । असफल व्यक्ति चिंतन करता है। असफलता
चिंतन की और ले जाती है। हम नैतिकता की अपेक्षा असफल व्यक्ति से ही करते है । सफल व्यक्ति की
कोई नैतिकता नहीं होती। दरअसल जीतना और सफल होना ही सब कुछ है। असफल व्यक्ति में दोष
ही दोष नज़र आते है, जबकि जीतने वाला व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न नज़र आता है। आज हर व्यक्ति
सफलता के लिए दौड़ लगा रहा है। साधन महत्वपूर्ण नहीं है। कैसे भी जीते , कैसे भी सफल हों , बस
जीतना है। सफल होने के लिए चाहे झूंठ ,धोखा , बेईमानी, भ्रष्टाचार किसी का भी सहारा लेना पड़े कोई
फर्क नहीं पड़ता । सफल हो जाने पर सारे दुर्गुण , गुणों में बदल जाते है। असफ़ल व्यक्ति में कमियां
ही नज़र आती है। जीवन में अधिकांश असफलता ही मिलाती है। सफल व्यक्ति उपदेश देता है । सफल
होने के गुर बताता है। असफल व्यक्ति चिंतन करता है। चिंतन की परम्परा सदियों से जारी है।
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कविता
---------------- -गोविन्द माथुर
विनम्र
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विनम्र होते है इतने नम्र
उनमे व्याप्त नमी से
पिघल जाते है पहाड़ भी
विनम्र होते है इतने लचीले
पता ही नही लगता - वे
शीर्षासन कर रहे है या
खड़े है पैरों पर
यूँ विनम्र पैरों पर
खड़े कम ही दीखाई देते है
अक्सर उनका शीश
झूका होता है सजदे में
विनम्र झुके रहते है
जब तक उन्हें उठाया नही जाता
आशीर्वाद दे कर आश्वस्त नहीं किया जाता
विनम्र में कूट कूट कर
भरी होती है विनम्रता
विनम्र की मजबूरी है
हर समय झुके रहना
दरअसल विनम्र के
शरीर में रीढ़ ही नहीं होती
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