1.7.09

कविता

अपना शहर
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एक

कभी कभी दूर तक
एक भी चेहरा परिचित नहीं दिखता
सड़कें पहले से ज्यादा लम्बी हो गई है
कई बार रास्ता भूल जाता हूँ
अपने ही शहर में
परदेशी रास्ता दिखाते है मुझे

ऐसा नहीं है कि
मेरी दृष्टि कमजोर हो गई है या
मेरी स्मरण शक्ति साथ नहीं दे रही है
सच तो ये है कि
मेरी स्मृतियों कि सघनता के साथ
इमारतों का जंगल इस कदर बढ़ा है कि
मेरे विस्फारित नेत्र झांक नहीं पाते
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मेरा शहर
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दो

कौन हूँ मै क्या नाम है मेरे पिता का
किस गली मोहल्ले में रहता हूँ
आजकल इस तरह के प्रश्न कोई नही करता
अब कोई मुझे
मेरे पितामह के नाम से नहीं जानता
किसी की भी आंखों में
एक ही शहर का होने की आत्मीयता नहीं पाता
पूरा शहर एक बाज़ार है
हर वस्तु बिकाऊ है
हर व्यक्ति खरीददार
कुछ ख़ुद को बेच रहें है , कुछ दूसरे को
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मेरा शहर
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तीन

कुछ लोगों की स्मृति में आज भी
एक शांत और सभ्य शहर है मेरा शहर

एक गुलाबी गंध खीँच लाती है मेरे शहर में
उनकी स्मृति में हवा महल के बाहर से
गुजरते है ऊंट
वे तांगे में बैठ कर देखना चाहते है गुलाबीपन
जिसे ढक चुका है काला ज़हरीला धुंवा
फिल्मों में अंकित मनोहारी स्थल देख कर
पर्यटन विभाग व्दारा उपलब्ध
अलबम से देखते है मेरा शहर
और उदास हो जाते है देख कर

मेरे शहर
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चार

मेरी स्म्रतियों के शहर से बहुत अलग है
मेरे सपनों में आने वाला शहर

मेरे सपनों में आते है जलते हुए घर
बदहवास भागते हुए लोग
दह्शद्जदा चेहरे
मुझे सुनाई देती है
डरावनी आवाजे और घोडों की टाप

मै बचपन में भी
चौंक कर जाग उठता था
लेकिन तब डर नहीं लगता था
एक सुरक्षा थी अपने शहर में होने की
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