आज एक एनगीओ का सेमिनार था। वह कुछ अति युवा लड़किया पत्रकार आई हुई थी। मुझे उनेह देख कर जितनी खुशी हुई उतनी ही निराशा भी हुई । बच्चो ज्यादा कर युवा लड़कियों के खरीद्फरोत जैसे मुद्दे पर वे जैसे सवाल उठा रही थी उससे पता चल रहा था की उनेह काउंटर प्रश्न करना ही नही आता। संस्था जो कह रही है उसे फस - वैलुए पर क्यो लिया जाए? उनसे ये सवाल क्यो नही किया जाए की संस्था को जितने अनुदान मिल रहे है वे किन मदों पर खर्च हो रहे है ,संस्था ख़ुद पर कितना खर्चा कर रही है उन अनुदानों से । ये प्रश्न कोई नही पूछ रहा था। संस्था की एक अधिरकारी ने कहा कि नेपाल के फला-फला गाव में कोई युवा लड़की ही नही बची ? इस पर कोई काउंटर प्रश्न ही नही हुआ। ये बात अपने आप में एक बार में हजम होने वाली नही है। मैंने पुचा अच्छा बताये यह गाँव कहा है नेपाल में और ये कैसे हो सकता है कि सारी की सारी लड़किया गाँव से गायब हो जाए और लोग कुछ नही कर रहे है । मैंने उस संस्था की महिला अधिकारी से फिर प्रश्न किया ये कैसे संभव है? मेरे प्रश्न से वो थोडी चिड गयी । पर मैंने खोदना जारी रखा , खोदते खोदते पता चला वहा कुछ लड़किया विदेशो में काम कर के अच्छे खासे रुपये कमा कर घर लौटी है जिसे देख कर दूसरे घरो के लोगो ने भी अपनी लड़कियो को विदेश भेज कर अपने घर समृधि लाना चाहते है। पर ग़लत ज्ञान की वजह से दल दल में फस जाते है। आज मीडिया इसकी कोई सही तस्वीर नही प्रस्तुत कर रही है । इसलिए इन लोगो का भटकाव भी ख़तम नही हो रहा है। एक समय सरिता , दिल्ली प्रेस की पुब्लिकाशन आम जनता को कहानियो के मध्यम से बहुत कुछ प्रैक्टिकल बातें समझा ती थी, कभी बचपन में इस पढ़ कर हम भी खूब प्रैक्टिकल ज्ञान बटोरते थे , और सावधान होते थे। तमाम त्रुटियों के बावजूद मुझे आज भी सरिता एक अच्छी पत्रिका लगती है। आज हु८म इन बच्चो को प्रोपेर्ली ट्रेन भी नही करते कि इतने अहम् मुद्दों पर इन एन गी ओ को कैसे घेरा जाए।
गलती इन आती युवा लड़कियो कि नही इनके बॉस कि है जो इनेह इन मुद्दों कि गंभीरता नही समझाते और भेज देते है।
ये भी पत्रकारिता में मुद्दे उठाने काम इसका ग्लामौर देख कर ज्यादा आती है।
राम बचाए पत्रकार और पत्रकारिता को....
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