हिन्दी में स्त्रीवादी विमर्श संभव नहीं लगता. इसके कारणों को आलोचकों में ढूढने के बजाय समाज में ढूंढने चाहिए. हिन्दी समाज बना ही इस रूप में है कि इसमें स्त्री का पक्ष ठीक से आता ही नहीं. जिस हालत में हिन्दी समाज है और जिस तरह से इसका विकास हो रहा है स्त्री वादी दृष्टि का विकास दो चीजों पर निर्भर करता है. या तो कोई ऐसा स्कूल बने जो इस विषय को हिन्दी समाज के हिसाब से उठाए. यह स्त्रीवादी आतंकवादी नजरिया न हो नहीं तो इसका प्रभाव नहीं पडेगा. लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे. यह काम धीरज से किया जा सकता है. अभी हाल में अनामिका की एक किताब देखी थी. मुझे लगता है अगर इस तरह का लेखन ज्यादा मात्रा में होने लगे तो बात बन सकती है. मर्दवाद का विरोध करने की जल्दबाजी में कुछ लोग एक इस तरह के स्त्रीवाद को पोसने लगते हैं जो इस समाज के क्या किसी भी समाज के अनुकूल नहीं है. मर्दवाद कोई आसमान से टपकी हुई चीज नहीं है और न ही किसी षडयंत्र के तहद इसे प्रतिष्ठित किया गया है. मर्दवाद एक तरह की समस्या है जिससे परेशान पुरुष भी है. अपने समाज में जब से आधुनिक विचारों का आक्रमण /हस्तक्षेप हुआ तब से ही इस बात की ओर कम ध्यान दिया गया है कि भारतीय समाज को कुछ विजातीय से दीखने वाले तत्त्वों के साथ तालमेल बिठाना पडेगा. स्त्री पुरूष सम्बन्ध को लेकर जो एक तरह की बहस उन्नसवीं शताब्दी में चली थी उसका कोई बडा प्रभाव समाज पर, कम से कम हिन्दी समाज पर शायद नहीं पडा. गांधी के विचारों में एक परिपक्व भारतीय नारीवादी दृष्टि का विकास हुआ दीखता है लेकिन समाज ने उसे भी भुला दिया. जैनेन्द्र के साहित्य में एक भारतीय नारीवादी दृष्टि थी लेकिन हिन्दी समाज भी उसके लिए कोई सही कसौटी नहीं बना पाया. प्रेमचन्द से लेकर रेणु तक में स्त्री वादी (भारतीय) दृष्टि के विकास की संभावना थी. लेकिन समस्या यह है कि इसके बाद लेखिकाओं को उस दृष्टि का और विकास करना चाहिए था. महादेवी वर्मा को छोडकर बाकियों में उस गाम्भीर्य का अभाव दीखता है जो भारतीय समाज की गति-प्रकृति को ध्यान में रखते हुए सामाजिक विचार को आगे बढने और बढाने के लिए आवश्यक है. कुल मिलाकर जो स्त्री की विविध छवियों का मिसाइली हमला बाजारवाद के कारण बहुत विकृत रूप में आया है. 1990 के बाद नारी के आक्रामक रूप ने भीतर ही भीतर भारतीय मर्द को दहला दिया है. यह एक ऐसे समय और स्थितियों के लिए भारतीय मर्द को तय्यार रहने के लिए कहता है जहां वह अपने पुराने सभी आदर्शों से अपने को अलग खडा पाएगा. एक भारतीय मर्द अभी भी उसी के साथ प्रेम करना चाहता है जिसके साथ वह बुढापा बिताने की सोचता है. लेकिन इस समय की नारी उसे आक्रांत करती है. विवाह, परिवार, जीवन साथी, मां की ममता, सात जन्म आदि के साथ इस नयी नारी को मिला नहीं पाता. ऐसे समय में वह बह रहा है, एक अनिर्णय की स्थिति को ढोते हुए.
हिन्दी के अधिकतर सिद्ध विचारक इस समय हाथ जलाने के जोखिम से बचते हुए बाकी का समय बिताना चाहते हैं. वे जिस बौद्धिक स्ट्रेटेजी से काम चलाते हैं उसे समझना कठिन नहीं है. वे नारी का आदर्शीकरण करते हुए पुरूषवाद का विरोध इस अमूर्तन के साथ करते हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.
होना यह चाहिए कि बडी संख्या में लेखिकाओं को बहस के केन्द्र में लाया जाए और उन्हें धैर्य से सुना जाए. ज्यादा से ज्यादा युवा लेखक लेखिकाओं को बहस के केन्द्र में रखा जाए. लेकिन इसमें एक बडी मुश्किल है. जब दलित लेखकों की एक बड़ी संख्या हिन्दी में सक्रिय हुई वे बहुत हडबडी में दिखाई दिए. इस कमजोरी का फायदा उन लोगों को मिला जो समाज की नई चुनौतियों का मुकाबला नये समय के हिसाब से नहीं करना चाहते थे. धीरे धीरे ये नये दलित लेखक गुटबंदी के शिकार हो गये और दिग्भ्रमित हुए. आज दलित लेखन उतना संभावनाशील नहीं दिखलाई पड रहा जितना उसे होना चाहिए था. स्त्री लेखन को इससे बचना चाहिए. एक स्त्री कुछ अच्छा लिखती है तो हिन्दी के बहुत सारे दिग्गज उसे सहारा देने, उसके बारे में अतिश्योक्तिपूर्ण बातें कहने की प्रतियोगिता करने लगते हैं. मैं तो उस दिन दहल सा गया जब इस बीमारी का शिकार होते हुए एक बहुत् ही संभावनाशील युवा दलित आलोचक को देखा. उन्होंने एक लेखिका की पहली पुस्तक की प्रशंसा करते हुए उसे निर्मल वर्मा से भी श्रेष्ठ घोषित कर दिया! साहित्य का क्षेत्र कोई फिल्म जगत नहीं है जहां किसी को रातोंरात स्टार बनाया जा सकता है. इस क्षेत्र में धैर्य और निष्ठा के साथ लेखन का कार्य करने वालों को ही स्थायी मान मिल सकेगा. हम तो उम्मीद लगाए बैठे हैं कि लेखिकाओं की ओर से नई दृष्टि का विकास हो सकेगा.
aapne sahi baat likhi hai.
ReplyDeleteहिन्दीकुंज
मर्दवाद एक तरह की समस्या है जिससे परेशान पुरुष भी है. kya aap bhi pareshan hai? to pahal aap se shuru ho, hamari subhkamnayen aapki vichardhara ke sath hai
ReplyDelete♫ जिनके लिए ''नव वर्ष'' महज दो पुराने शब्द नहीं जिनके लिए ''एक जनवरी'' नये समाज को गढ़ने का नया संकल्प लेने का दिन है उन्हें नयी आशाओं, नयी चुनौतियों भरा नव वर्ष मुबारक़.
ReplyDeleteGyanendra