सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
आन्ध््रा प्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के निधन के बाद से ही उनके पुत्र को मुख्यमंत्री बनाने की बात की जा रही है। आखिर ऐसा क्यों है कि किसी लोकप्रिया नेता की मौत के बाद उसकी गद्दी को उसके परिवार को देने की कवायद की जाती है ? जवाहरला नेहरु, शेख अब्दुल्ला, करुणानिधि, एनटीआर, एमजीआर, बीजू पटनायक, लालूप्रसाद यादव, चौधरी चरण सिंह, अजीत सिंह, मुफ्ती मौहम्मद सईद और मुलायम सिंह यादव ने यही किया है और कर रहे हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती के हालांकि कोई औलाद नहीं है, लेकिन यह तय है कि उनकी विरासत को भी उनका कोई भाई या भतीजा ही संभालेगा। इन पार्टियों के मुखिया अपने परिवार के अलावा कुछ नहीं सोचते हैं। वे सोचे भी क्यों, जब जनता ही उनको राजा समझने लगती है। कमोबेश देश की सभी तथाकथित लोकतान्त्रिक राजनैतिक पार्टियां में वंशवाद का दंश लगा हुआ है। समझ में नहीं आता कि ये नेता अपनी पार्टी का नाम भी परिवार के किसी सदस्य के नाम पर ऐसे ही क्यों नहीं रख लेते, जैसे दुकानों के रखे जाते हैं। मसलन, 'नेहरु परिवार पार्टी', 'मुलायम सिंह एंड संस पार्टी', 'शेख अब्दुल्ला एंड संस पार्टी', 'चौधरी चरण सिंह प्राइवेट लिमिटेड पार्टी' आदि। पार्टी का संविधान बनाते समय उसमें में यह भी जोड़ लिया करें कि परिवार का सदस्य ही पार्टी का आजीवन मुखिया रहेगा। इससे कम से कम यह तो होगा कि पार्टी के दूसरे नेता इस उम्मीद में तो नहीं रहेंगे कि वे भी पार्टी में सर्वोच्च पद पा सकते हैं। यूं तो ये सभी पार्टियां अपने आप को लोकतान्त्रिक कहती हैं, लेकिन इन पार्टियों का अध्यक्ष कभी भी लोकतान्त्रिक तरीके से चुनता हुआ नहीं देखा गया। भारत में केवल भाजपा और वामपंथी पार्टियां ही ऐसी हैं, जिनमें वंशवाद नहीं है और थोड़ा बहुत आन्तिरक लोकतन्त्र भी मौजूद है। वरना सबमें वंशवाद और एक परिवार की तानाशाही है।
फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में मुलायम सिंह यादव ने अपनी पुत्रवधु को टिकट देकर यह साबित किया है कि समाजवाद का चोले पहने समाजवादी पार्टी एक ही परिवार की बबौती बन गयी है। हैरत की बात है कि मुलायम सिंह यादव को पूरी पार्टी में एक भी एक ऐसा योग्य आदमी नहीं मिला, जिसे फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव का टिकट दिया जा सके। उनकी पुत्रवधु की क्या योग्यता है ? सिर्फ यही ना कि वह एक पार्टी के मुखिया की पुत्रवधु हैं। मुलायम सिंह यादव खुद सांसद हैं। उनके भाई शिवपाल सिंह सांसद हैं। उनका भतीजा सांसद है। उनके पुत्र सांसद हैं। शायद मुलायम सिंह ने सोचा हो कि परिवार की एक महिला का भी सांसद होना जरुरी है, इसलिए पुत्रवधु को ही सांसद बना दिया जाए।
लालू प्रसाद यादव जब चारा घौटाले में जेल गए तो उन्होंने बिहार का मुख्यमंत्री अपनी उस पत्नि को बनाना ज्यादा सही समझा, जो घर की चारदीवारी से कभी बाहर नहीं निकली। उन्हें पूरे राष्ट्रीय जनता दल में एक भी विधायक इस योग्य नहीं मिला था, जिसे मुख्यमंत्री बनाया जा सकता था। अपनी पत्नि और पुत्रवधु को मुख्यमंत्री और सांसद बनाने वाले यही नेता संसद में तैंतीस प्रतिशत महिलाओं को टिकट देने वाले विधेयक पर पता नहीं क्या-क्या दलील देकर उसमें अड़ंगा डाल देते हैं। नेहरु परिवार से वंशवाद की शुरुआत हुई थी। नेहरु परिवार के बगैर कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती है। कांग्रेस की देखा-देखी वंशवाद रोग लगभग सभी पार्टियों को लग गया है। खासकर क्षेत्रीय पार्टियां तो बिल्कुल ही जेबी पार्टियां बनकर रह गयी हैं। जम्मू कश्मीर की नेशनल कांफ्रेन्स के सुप्रीमो पहले शेख अब्दुल्ला रहे। उनके बाद फारुक अब्दुल्ला आ गए। फारुक अब्दुल्ला ने अपनी विरासत उमर अब्दुल्ला को सौंप दी। बीच में जरुर फारुक अब्दुल्ला के बहनोई जीएम शाह ने बगावत करके जम्मू कश्मीर की सत्ता कुछ दिनों के लिए हथिया ली थी। लेकिन जीएम शाह भी तो उनके परिवार के ही सदस्य थे। जम्मू कश्मीर की ही पीडीपी के मुखिया मुफ्ती मौहम्मद सईद की विरासत को उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती संभाल रही हैं। बीजू पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल के मुखिया उनके बेटे नवीन पटनायक बने। हालांकि बीजू पटनायक ने तो पहले ही अपनी पार्टी का नाम अपने नाम पर ऐसा ही रखा था, जैसे नामों का सुझाव मैं दे चुका हूं।
केवल पार्टियों में ही नहीं, सांसद या विधायक के परिवारों में भी वंशवाद का दंश मौजूद है। माधवराव सिंधिया की मौत के बाद ज्योतिरादत्य सिंधिया ही उनकी जगह सांसद बने। राजेश पायलट की सांसदी भी उनके बेटे सचिन पायलट के हिस्से में आयी। भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने तो न केवल अपने बेटे राजबीर सिंह को राजनीति में आगे बढ़ाया बल्कि अपनी प्रिय कुसुम राय को भी राजनीति में कैरियर बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अजीत सिंह ने भी अपने बेटे को भी संसद में भेजा। अजीत सिंह का अनुराधा चौधरी के बगैर संसद में दिल नहीं लगता। सहारनपुर से सांसद रह चुके रशीद मसूद ने भी अपने बेटे शादान मसूद को सांसद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कैराना से बसपा सांसद मुनव्वर हसन की मौत के बाद हुए उपचुनाव में बसपा ने उनकी पत्नि तबस्सुम हसन को ही टिकट देकर वंशवाद को बढ़ावा दिया। जनता यह क्यों नहीं सोचती कि यह जरुरी नहीं कि जो योग्यता पिता में है वह उसके बेटे, बेटी या भतीजे में भी हो। पता नहीं आजादी के साठ साल भी देश की जनता आजादी और लोकतन्त्र का मतलब कब समझेगी ?
दरअसल आजादी का मतलब कोई समझाना ही नहीं चाहता है क्यों की बचपन से ही एक कहानी सुनाई जाती थी की एक राजा था उस के मरने के बाद राज कुमार को राज गदी सौप दी गई और ये आधुनिक राजा जानते है की उन के मरने के बाद उन के उतरा अधिकारियो को कोई राजा तो क्या चपरासी भी नहीं बन्ने देगा इसी आप धाप में है सब
ReplyDeletedharmender yadav