21.9.09

बुद्धदेव के पर कतरनें की कवायद


- श्रीराजेश-
पिछले सप्ताह हुई माकपा की पोलित ब्यूरो की बैठक में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य मौजूद नहीं थे. उनकी अनुपस्थिति में बंगाल में दरकते पार्टी के जनाधार पर सीमेंट का गाड़ा लगाने पर चर्चा की गयी. अगर देखा जाय तो राष्ट्रीय स्तर पर दो राजनीतिक दलों के बीच खींचतान मची हुई है. एक तरफ भाजपा की कुंडली में ग्रह-नक्षत्रों का इधर से उधर होना दिखता है वहीं आरएसपी के पश्चिम बंगाल में हाल की राजनीतिक हालातों ने मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के चुनौती खड़ी कर दी है.राज्य में वामदलों के सामने दिक्कत यह है कि उसके पास ज्योति बसु के बाद ले दे कर बुद्धदेव ही एक ऐसा चेहरा हैं जो प्रशासनिक अनुभव वाले है, बावजूद इसके पार्टी के सदस्यों के बीच उनके फैसले को लेकर असंतोष पनपने लगा है. बेहतर जनाधार वाले नेता सुभाष चक्रवर्ती की असमय मृत्यु से पार्टी को खासा नुकसान हुआ है. एक ओर जहां चक्रवर्ती की पार्टी के कार्यकर्ताओं में गहरी पैठ थी तो वहीं व्यवसायिक घरानों में उनकी अच्छी पहुंच थी. वाममोर्चा के चेयरमैन व माकपा के प्रदेश महासचिव विमान बोस की कार्यकर्ताओं में खासी पैठ है लेकिन प्रशासनिक अनुभव नहीं. ऐसे में पार्टी के पास बुद्धदेव का विकल्प नहीं मिल पा रहा है. सूत्रों के अनुसार कार्यकर्ताओं के मनोबल को बनाये रखने और बुद्धदेव के पर कतरने के लिए पार्टी की केंद्रीय कमेटी उपमुख्यमंत्री के रूप में नया चेहरा तलाशने में जुट गयी है.वैसे भी सिंगूर के मामले में ममता बनर्जी के घोर के विरोध और किसानों को हुए नुकसान के बाद बुद्धदेव की लोकप्रियता का ग्राफ नीचे गिरा है. हाल में रतन टाटा द्वारा यह बयान दिये जाने के बाद कि वह सिंगूर का जमीन वापस कर सकते हैं, बशर्ते राज्य सरकार सिंगूर में टाटा द्वारा खर्च की गई राशि लौटा दे. टाटा के इस बयान के बाद जहां विपक्ष सरकार पर जमीन वापसी के लिए फिर दबाव बनाने लगी है, वहीं पार्टी कार्यकर्ता सिंगूर में पार्टी की विफलता मान रही है और मुख्यमंत्री के खिलाफ रोष से भरे है. सिंगूर के मामले में मुख्यमंत्री कई बार प्रकाश कारत के आलोचना के शिकार भी बन चुके है, इसके बावजूद उनकी मनमानी से पोलित ब्यूरो को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. सिंगूर, नंदीग्राम और अब लालगढ़ के मामले में उनके हठधर्मिता की वजह से केंद्रीय नेतृत्व उनसे खार खाये बैठा है. प्राप्त जानकारी के अनुसार राज्य में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी के आइकान लीडर किसी नये चेहरे को बनाया जायेगा. लालगढ़ का मामला भले ही ठंडा पड़ गया हो लेकिन वहां माओवादियों की गतिविधियों में कोई कमी नहीं आयी है. इसके बावजूद पिछले दिनों बुद्धदेव द्वारा लालगढ़ के मामले में केंद्र सरकार का समर्थन करना तथा सज्जन जिंदल के पक्ष में दिया गया बयान पार्टी काडरों के साथ केंद्रीय नेतृत्व की भृकुटी खड़ी कर दी है. जब कि देखा जाय तो राज्य के मुखिया के तौर पर उनके द्वारा किया गया कार्य गलत नहीं है फिर भी केंद्रीय नेतृत्व को अपना गढ़ बचाने की चिंता सता रही है. केंद्रीय नेतृत्व एक तो राज्य में उपमुख्यमंत्री बैठा कर बुद्धदेव का पर कतरने की कोशिश कर रहा है वहीं लालगढ़ के मामले पर पार्टी अपनी स्पष्टता भी दर्शाना चाहती है. इस क्रम में माकपा यदि माओवादियों, आदिवासियों के साथ जाती है तो प्रशासनिक अडंगे से पार्टी को दो चार होना पड़ेगा और सरकार आड़े आयेगी और यदि वह इससे बचती है तो घोर वामदल राज्य से माकपा की बोरिया बिस्तर बांधने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी. ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा फायदा विपक्ष उठा ले जायेगा.

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