15.9.09

हरीश भादानी की कवि‍ता का लोकतान्‍त्रि‍क संसार

कविता की वर्चुअल समीक्षा के लिहाज से हरीश भादानी आदर्श कवि हैं। वर्चुअलिटी के जितने भी लक्षण हैं वे उनकी कविता में अनायास चले आए हैं। कवि कब अनायास वर्चुअल पैराडाइम में चला गया इसके बारे में कवि ने संभवत: कभी सोचा ही नहीं। कुछ लोग सुचिंतितभाव से वर्चुअल हो रहे हैं और कुछ हैं जिन्हें मालूम नहीं है कि उनकी सर्जनात्मकता को वर्चुअल रियलिटी ने घेर लिया है। वर्चुअल उपकरणों के जरिए कविता की कभी आलोचना भी नहीं लिखी गयी। ऐसे में वर्चुअल रियलिटी के परिप्रेक्ष्य में कविता पढ़ना, वह भी प्रिंट कविता पढ़ना बेतुकी बात लग सकती है। किंतु मौजूदा पाठ वस्तुत: वर्चुअल समीक्षा प्रयोग है।

वर्चुअल रियलिटी हमारे घर में घुस आयी है। इसने हमारे समूचे जीवन-जगत को घेर लिया है। इसके बावजूद हिन्दी के समीक्षक वर्चुअल रियलिटी के परिप्रेक्ष्य और वर्चुअल तकनीक के प्रभाव को साहित्य के साथ जोड़कर नहीं देख रहे हैं। वर्चुअल रियलिटी को आप जानें अथवा न जानें यह आपको प्रभावित करेगी। हरीशजी की कविता में वर्चुअल रियलिटी ने गंभीर प्रभाव छोड़े हैं। इनकी गंभीरता के साथ पड़ताल की जानी चाहिए।

हरीश भादानी को हिन्दी साहित्य जगत में व्यापक प्रसिध्दि प्राप्त है। कवि,कार्यकर्त्ता और मिलनसार सामाजिक के रूप में उन्हें सभी जानते हैं। हरीशजी का रचना संसार प्रकृति से लेकर राजनीति तक, निजी से लेकर सार्वजनिक तक फैला हुआ है। इसके बावजूद हिन्दी आलोचना ने हरीशभादानी पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। उन कवियों पर कम ध्यान दिया गया है जो दिल्ली के अकादमिक सर्किल से जुड़े नहीं हैं। हरीशजी की उपेक्षा का प्रधान कारण है हिन्दी की आलोचना का सीमित दायरे में विचरण। जनवादी गीतकारों पर कभी विस्तार के साथ हिन्दी आलोचना ने विचार नहीं किया। उन कवियों की आलोचना ने उपेक्षा की है जिनका हिन्दीभाषी क्षेत्र की किसी न किसी बोली या भाषा में भी लेखन है। इस मामले में अपवाद हैं नागार्जुन।

हरीशजी की कविता में इमेजों का जखीरा है। कवि का प्रधान लक्ष्य है इमेजों के जरिए अभिव्यक्त करना। किसी न किसी बहाने इमेजों को सामने लाना। मसलन् उनके संकलनों के नाम ही देखें तो वहां पर भी इमेजों को ही केन्द्र में रखा गया है। मेरे सामने एक संकलन है ''रोटी नाम सत है'', इस संकलन में कविताओं के शीर्षक इमेजों को अभिव्यक्त करते हैं। जैसे- हल्ला बोल,बंद, रोटी नाम सत है,राजा दरजी, राजा बोलता है,हरावल, दिल्ली में, दुकान कफन की। इसी तरह अन्य काव्य संकलनों ( मैं यहां 'सड़कबासी राम' और 'रोटी नाम सत है' नामक संकलनों को केद्र में रखकर ही अपनी समीक्षा रख रहा हूँ) में भी लेखक ने इमेजों को उकेरने में अपनी सारी सर्जनात्मक ऊर्जा खर्च की है।

लेखक ने इमेजों के जरिए ही अभिव्यक्ति का रास्ता क्यों चुना ? इमेजों में व्यक्त करने का प्रधान कारण है लेखक का सामयिक संदर्भ। लेखक का सामयिक संदर्भ इलैक्ट्रिोनिक मीडिया से निर्मित हो रहा है। इलैक्ट्रोनिक मीडियाजनित वातावरण इमेजों का वातावरण है। हम इमेजों में बातें करते हैं, इमेजों को देखते हैं। इमेजों में ही जीते भी हैं। कवि के नाते हरीशजी की चेतना पर इलैक्ट्रोनिक मीडिया का गहरा असर है। इसके कारण उन्होंने अभिव्यक्ति के लिए इमेजों का ज्यादा इस्तेमाल किया है।

हरीशजी की कविता में दो महत्वपूर्ण चीजें हैं ये हैं 'इमेज' और 'काल' इनमें संतुलन का काम किया है लय,भाषा और गीत ने। इसके अलावा जिस चीज का लेखक ने व्यापक इस्तेमाल किया है वह है 'बॉडी' अथवा शरीर। उनकी कविता में शरीर किसी न किसी रूप में दाखिल होता है। लेखक चाहे मिथक पर बातें करे या आम आदमी पर, निजी भावों को व्यक्त करे अथवा राजनीतिक भावों को व्यक्त करे सबमें 'शरीर' का चित्रण जरूर मिलता है। विचार करने की चीज है कि लेखक में 'बॉडी' के प्रति आग्रह क्यों है ?

हरीशजी की कविता सीधे इमेज निर्माण से शुरू होती है। कविता पढ़ते हुए सीधे इमेज से मुठभेड़ होती है। इमेज के साथ शरीर से भी गुजरना पढ़ता है। कविता में व्यक्त शरीर सामान्य शरीर नहीं है। बल्कि कोडिफाइड शरीर है। इसका अपना 'कोड' है यदि आप उस 'कोड' को खोलना जानते हैं तो इसका अर्थ खुलेगा वरना सतह पर एब्सर्ड लगेगा। इमेज,शरीर के चित्रण तक कविता थमती नहीं है बल्कि कविता अपने सुनिश्चित अर्थ के दायरे के परे जाकर एकाधिक अर्थों को व्यंजित करती है।

मसलन् ''सड़कबासी राम' का अर्थ कविता में निहित 'कोड' को खोलने के बाद ही निकलता है। आप अपने सामयिक जगत के परे जाकर कई अर्थ पाते हैं। हम लोगों की आदत है कविता में सुनिश्चित अर्थ खोजने की। हरीशजी की कविता सुनिश्चित अर्थ के भावबोध को नष्ट करती है। कविता को खोलते ही नया संदर्भ और नया अर्थ दिखाई देता है। एक कविता में एकाधिक अर्थ रहते हैं। कविता साधारण बात,साधारण खबर अथवा साधारण वस्तु से शुरू होती है और फिर बड़ी अवधारणा की ओर चली जाती है। साधारण से शुरू होने वाली कविता का परिभाषा में रूपान्तरण उनकी कविता का बुनियादी गुण है। इमेज बनाने के क्रम में चिरपरिचित शरीर, ब्यौरे, छोटे-छोटे विवरण आदि के जरिए विषयवस्तु को उठाना और फिर उसे भाषायी कोडिंग के जरिए परिभाषा की ऊँचाईयों तक ले जाना यही है कविता प्रक्रिया।

हरीशजी की कविता अर्थ की सबसे निचली सतह से शुरू होती है और तुरंत ही कविता अन्य अर्थ को संप्रेषित करने के लिए अथवा 'अन्य' के साथ संवाद बनाने के लिए उच्च धरातल पर चली जाती है। 'अन्य' से तुरंत संपर्क और विनिमय करती है। कविता में जो इमेज दिखाई देती हैं वे किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं बल्कि सौंदर्यबोधीय विभ्रम (इल्युजन) पैदा करती हैं। भाषा इन विभ्रमों को निर्मित करने का उपकरण है। कवि शुरू करता है इमेज निर्माण से ,भाषा से उसे सघन बनाता है और अंत में इमेज गायब हो जाती है। कविता अंत में अपनी इमेज से मुक्त हो जाती है। फलत: कविता में किसी का भी रूपायन टिक नहीं पाता। कविता में प्रतिनिधि विशेष को अभिव्यक्ति नहीं मिलती। भाषायी शिल्प के जरिए जिस इमेज को गढ़ते हैं अंत में वह गायब हो जाती है।यथार्थ जगत से परे चले जाती है। यथार्थ जगत के संदर्भ से शुरू हुई कविता यथार्थ जगत से भिन्न जगत में चली जाती है।

हरीशजी की कविता में खाली स्पेस नहीं होता। शून्य नहीं होता, ऐसी स्थिति नहीं होती कि आप अपनी इच्छा से चाहें तो कुछ भी भर लें। इमेज को सघन बनाने के लिए भाषा के शिल्प के जरिए हरीशजी बारबार खाली स्पेस को भरते हैं, चुप्पी के क्षेत्रों को खोलते हैं। फलत: कविता अनेकार्थी हो जाती है। जिस इल्युजन को वे कविता में पैदा करते हैं फिर उसी को नष्ट करते हैं। इस अर्थ में कविता को निष्पन्न बनाते है। पूरा बनाते हैं। इमेजों के जगत में 'काल' के साथ प्रवेश करते हैं। इमेज के बदलते ही 'काल' में परिवर्तन नजर आता है। कविता में व्यक्त इमेजों का 'अन्य' की 'काफी दूर' की भूमिकाओं से संबंध है। वे अपने कार्य व्यापार को 'अन्य' के 'दूर वाले' संसार में ले जाकर समाप्त करते हैं। 'अन्य' के 'दूर वाले' संसार तक जाने के लिए मिथकीय मध्यस्थों अथवा भाषायी सेतुओं का इस्तेमाल करते हैं।

हरीशजी की कविता इस अर्थ में वर्चुअल परिप्रेक्ष्य से अलग है कि उसमें 'मनुष्य का बहिष्कार' नहीं है। वर्चुअल रियलिटी 'मनुष्य के बहिष्कार' पर टिकी है। जबकि हरीशजी की कविता में मनुष्य के अदृश्य संसार का लेखाजोखा है। अदृश्यों को दृश्य बनाने की कविता में कोशिश है। अदृश्य को दृश्य बनाने के चक्कर में लेखक वर्तमान से लेकर अतीत तक की यात्रा करता है। किसी चीज को भविष्य में ले जाना है तो अतीत में जाए बगैर भविष्य में नहीं जा सकते। मनुष्य को भविष्य में ले जाने के लिए मनुष्य के अतीत में जाना जरूरी है। यही वजह है कि प्रत्येक कविता में लेखक अतीत में लौटता है, मिथकीय चरित्रों में लौटता है, पुरानी भाषा में लौटता है, पुराने भावबोध में लौटता है और फिर वर्तमान में चला आता है। वर्तमान के सवालों पर चित्रण करते हुए अतीत में लौटना और फिर वर्तमान और भविष्य की ओर चले जाना ही वह काव्य प्रक्रिया है जो हरीशजी को मुक्तिबोध ,नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल से भिन्न बनाती है।

वर्चुअल रियलिटी अन्तर्विरोधों से दूर ले जाती है। गैर-अन्तर्विरोधी यथार्थ को पेश करना उसका प्रधान लक्ष्य है। आज वर्चुअल यथार्थ का लक्ष्य है आनंद देना। वास्तव जिंदगी से पलायन में मदद करना। यथार्थ के रूपायन में जिम्मेदारी के भावबोध की कोई जगह नहीं है। कविता में अन्तर्विरोधों से बचना संभव नहीं है। कविता बगैर अन्तर्विरोध के लिखी नहीं जा सकती।

हरीशजी की कविता में भी अन्तर्विरोध हैं ,वे अन्तर्विरोधों को सघन बनाते हुए खोलते हैं ,अन्त में अन्तर्विरोध गायब हो जाते हैं। अन्तर्विरोध की जगह 'अन्य' चीज आ जाती है। कविता में अर्थ का विभ्रम पैदा होता है। अर्थ का विभ्रम कविता में अर्थ को अंतहीन बना देता है। अर्थ का अंतहीन सिलसिला तर्कों के अम्बार ले जाता है।

इन कविताओं में संस्कृतियों के अर्थ क्रमश: धराशायी होते नजर आते हैं। यथार्थ की संस्कृति और संस्कृति की सूचनाएं ध्वस्त नजर आती हैं। इस प्रक्रिया का गहरा संबंध कविता की संरचना में निहित है। कविता की संरचना कुछ इस तरह की है कि उसमें इन सबका अतिवाद नजर आता है। कवि अपनी कविता के जरिए मिथक,इमेज,भाषायी कोड, अन्य के साथ संवाद अथवा विनिमय आदि के जरिए सभी किस्म के नियमों को तोड़ता है। कविता में कृत्रिम वातावरण बनाता है। जो सतह पर स्वाभाविक लगता है। यह स्वाभाविक नहीं है ये लेखक के मानसिक 'कोड' हैं। लेखक चीजों के बारे में इन्हीं कोड के जरिए सोचता है। ये ही कोड उसकी कल्पनाशीलता को व्यक्त करते हैं। ये कोड काफी जटिल और उलझनभरे हैं। इनके जरिए लेखक अनेक चीजों के बारे में कहना चाहता है।

हरीशजी के लेखन पर विचार करते हुए यह सवाल भी उठता है कि आखिरकार लेखक किसके लिए लिख रहा है ? कुछ लोग यह सोचते हैं कि हरीशजी राजस्थानी लेखक है। कुछ यह भी मानते हैं कि वह हिन्दी के लेखक हैं। इस क्रम में बुनियादी सवाल यही उठता है कि लेखक किसके लिए लिखता है ? इस सवाल के उत्तार के पीछे आलोचकों की अपनी-अपनी राजनीति काम करती है। व्याख्या की राजनीति काम करती है। यह सच है कि जिस युग में हम रह रहे हैं उसमें अन्तर्विरोधी अनुभूतियों में जी रहे हैं। अन्तर्विरोधी परिस्थितियों के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। हरीशजी जिस दौर में लिख रहे हैं उसे परवर्ती पूंजीवाद के युग के नाम से जानते हैं। परवर्ती पूंजीवाद के सांस्कृतिक संदर्भ में ही उनके लेखन को देखा जाना चाहिए। उनकी समस्त गतिविधियों को परवर्ती पूंजीवाद के सांस्कृतिक संदर्भ में ही खोलकर पढ़ा जाना चाहिए।

हरीशजी की कविता 'फैंटेसी' को व्यक्त करती है। सामान्यत: 'फैंटेसी' की प्रतिगामी भूमिका होती है वह यथार्थ का अतिक्रमण करती है। इसमें मस्तिष्क की उड़ानों को देखा जा सकता है। फ्रायड की मानें तो फैंटेसी ही जो हमें राष्ट्र और जातीयता के बोध में ले जाती है। लेखक के लिए सामाजिक तौर पर जो जगत प्रासंगिक और सहज लगता है उसमें ही वह कल्पना की उड़ान भरता है। फैंटेसी इस युग का सबसे कीमती लक्षण है। फैंटेसी के आधार पर ही अस्मिता, सभ्यता,धर्म,संस्कृति,जगत आदि के बारे में लेखक अपना नजरिया व्यक्त करता है। फैंटेसी के आधार पर ही अपनी राजस्थानी-हिन्दी अस्मिता को व्यक्त करता है। अस्मिता के सवालों पर अपनी राय व्यक्त करता है। 'सड़कबासी राम'' ऐसी कविता है। इस क्रम में वे जहां एक ओर 'अस्मिता की राजनीति' करते हैं वहीं दूसरी ओर यथार्थ के साथ भी जुड़ने की कोशिश करते हैं। यथार्थ के साथ अपना निजी,नजदीकी, नरम रिश्ता भी बनाते हैं। ये चीजें अनायास उनकी अस्मिता का हिस्सा भी बन जाती हैं। साथ ही प्रतिस्पर्धी राजनीति के बीच में अपनी पक्षधरता को भी व्यक्त करते हैं।

हरीशजी ने 'सड़कबासी राम' कविता में लिखा है -

'' न तेरा था कभी

न तेरा है कहीं

रास्तों -दर -रास्तों पर

पांव के छापे लगाते ओ अहेरी

खोलकर

मन के किवाड़े ,सुन!

सुन कि सपने की

किसी संभावना तक में नहीं

तेरा अयोध्या धाम

सड़कबासी राम! ''

इसके बाद कविता सीधे फैंटेसी की दुनिया में चली जाती है। फैंटेसी के जरिए सभ्यता,संस्कृति,यथार्थ और राजनीतिक अवस्था का चित्रण पेश करते हैं। इस कविता के जरिए लेखक राष्ट्रवाद को भी चुनौती देता है। वह अनेक संदर्भों में यात्रा करता हुआ फैंटेसीमय अभिव्यक्ति का रास्ता चुनता है। परवर्ती पूंजीवाद की सांस्कृतिक अवस्था और नागरिकों की मनोदशा का बड़ा ही सुंदर वर्णन ''जड़ भरत हम''(सड़कबासी राम संकलन में) में देख सकते हैं। कायदे से 'सड़कबासी राम', 'जड़ भरत हम' और 'बित्ताा-भर भविष्य' इन तीन कविताओं को एक साथ पढ़ना चाहिए। ये तीनों कविताएं हरीशजी की कविता में फैंटेसी के स्थायी प्रयोगों के लिहाज से बेहतरीन बन पड़ी हैं। इनमें काव्यात्मकता,मनोदशा,ऐतिहासिकता और जनता के ऊपर उसके प्रभाव के बारे में विस्तार के साथ बताया गया है। ये कविताएं लेखक की अपनी अस्मिता के कैनवास को भी सामने लाती हैं। लेखक कैसे अस्मिता के पुराने दायरे में प्रवेश करते हुए उसके परे चला जाता है। किस तरह आधुनिक सरोकारों में जीता है। 'बित्ताा-भर भविष्य' में लेखक ने सही लिखा है ''

''गूंगा जंगल भर

जो रह गया है हमारा राज;''

हरीशजी की कविताओं में राजस्थानी ,हिन्दी,संस्कृत भाषा के प्रयोग समान रूप में मिलते हैं, इसके अलावा मजदूरों,चरवाहों के बीच के भाषायी प्रयोग भी मिलते हैं। कविता की लय के लिए लेखक नए-पुराने प्रयोगों के बीच भेद करके नहीं चलता बल्कि जहां जैसा उचित लगता है वहां पर वैसा ही प्रयोग करता है। इस प्रसंग में कविता के हित प्रमुख नजर आते हैं। बाकी हित पीछे टूट जाते हैं। कविता में रूप के स्तर पर पुराने-नए प्रयोगों के प्रति किसी पूर्वाग्रह के बिना लिखना और उसे अभिव्यक्ति का सहज उपकरण बनाकर विकसित करना निश्चित रूप से महत्वपूर्ण कार्य है।

हरीशजी के यहां कविता के दो मॉडल नजर आते हैं। पहला मॉडल है जिसमें गीत और संगीत का सम्मिश्रण नजर आता है। इसे गीतात्मक कविता भी कह सकते हैं। दूसरा काव्य मॉडल है जिसमें भाषण,संवेदनाएं अथवा आत्मगत तत्वों की भरमार है। ये दोनों मॉडल एक ही तरीके से नहीं पढ़े जा सकते। हरीशजी की कविता में इतिहास और यथार्थ के बीच अन्तर्क्रियाएं चलती रहती हैं। कविता में इतिहास और यथार्थ का इस तरह का सम्मिश्रित प्रयोग विलक्षण चीज है।

इतिहास और कविता के बीच में संबंध बनाते हुए हरीशजी इतिहास और साहित्य दोनों को सूचनासम्पन्न करते हैं। इतिहास और कविता के बीच में संबंध बनाने के साथ जिस चीज को निर्मित करते हैं वह है सामयिक यथार्थ। इतिहास में जाते हुए हरीशजी इतिहास नहीं बनाते बल्कि कविता रचते हैं। इतिहास और कविता के बीच में सेतु का काम करता है ' रेहटोरिक' और 'भाषा' ,इन दोनों का व्यापक इस्तेमाल करते हैं।

'रेहटोरिक' और 'भाषा' ये दोनों पहचान देते हैं, इनकी हमारी परंपरा में जड़ें हैं। जबकि आलोचना की कोई पहचान नहीं है। उसकी कोई शक्ल नहीं होती। कविता और इतिहास के बीच संबंध बनाते हुए रचनाकार साझा संस्कृति,साझा संबंधों और साझा सरोकारों के साथ साझा भूमिका पर जोर देता है। इस काम में ''रेहटोरिक' और 'भाषा' सबसे कारगर उपकरण हैं। हमने रचना में लेखक के व्यक्तिगत तत्वों की खोज पर ज्यादा ध्यान दिया है। साझा तत्वों की खोज को छोड़ दिया है। कविता और इतिहास का अन्तस्संबंध साझा संस्कृति,साझा अनुभूति और साझा सरोकारों को व्यक्त करता है। हरीशजी के यहां लेखक का व्यक्तिगत नजरिया महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि वह गौण है।

हमारी मुश्किल यह है कि हम हरीशजी पर बातें करते हुए व्यक्तिगत नजरिए पर ही जोर देते हैं। यदि व्यक्तिगत नजरिए पर जोर देंगे तो कविता और इतिहास को अंशकालिक बना देंगे। कविता और इतिहास अंशकालिक नहीं हैं। बल्कि कालिक हैं। इसके कारण इनके कुछ तत्व आलोचना में भी चले आए हैं। हरीशजी की कविता में बार-बार राजस्थानी का आना,उपनिषदों के पात्रों, मिथकीय पात्रों का आना, मिथकीय स्थानों का आना, उन भौगोलिक स्थानों और परिस्थितियों का आना जिनमें रचना रमण करती है। एक ही वाक्य में कहें रचना में भूगोल का आना बहुत ही सुखद फिनोमिना है। इससे एक चीज यह पता चलती है कि लेखक को भूगोल का अच्छा ज्ञान है। यह भौगोलिक जागरूकता का प्रदर्शन है। चीजों की भौगोलिक अर्थों के साथ अभिव्यक्त है। आधुनिकाल में अकेले अन्तोनियो ग्राम्शी ही अकेला ऐसा विचारक था जिसके पास भौगोलिक जागरूकता थी और जिसने भौगोलिक जागरूकता का रूपायन करके बीसवीं शताब्दी में आलोचना की सबसे बड़ी सेवा की थी। हरीशजी की भौगोलिक जागरूकता साहित्य,संस्कृति,स्त्री,राष्ट्र आदि को समझने में मदद करती है।

सवाल उठता है लेखक लिखना क्यों चाहता है ? वह किन दबावों में लिखता है ? लेखक इसलिए नहीं लिखता कि उसमें अभिव्यक्ति की छटपटाहट होती है ,बल्कि वह लिखना इसलिए चाहता है क्योंकि यथार्थ को उसे लिपिबध्द करना है। यथार्थ को शब्दबध्द करना है। आधुनिककाल की सबसे बड़ी दुर्घटना है यथार्थ का निरंतर लेखक की पकड़ के बाहर चले जाना, कलाओं से यथार्थ का निरंतर बढ़ता हुआ अलगाव। यथार्थ को पाना, लिपिबध्द करना,भविष्य के लिए सुरक्षित रखना, यथार्थ का इतिहास निर्मित करना और अपनी भूमिका सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ही लेखक लिखता है।

आधुनिक काल में खासकर आजादी के बाद तेजी से रचनाकारों का यथार्थ से अलगाव बढ़ा है। पहले यह अलगाव प्रत्यक्ष था। एक बड़ा खेमा था जो अलगाव के चित्रण में काफी शक्ति खर्च कर चुका है। मेरा इशारा उन लेखकों की ओर है जो प्रयोगवाद से लेकर अकविता के दौर तक मिलते हैं इस दौर के लेखक को अलगाव के संदर्भ में व्यक्ति के सवालों को उठाने में मजा आता था। अलगाव और व्यक्ति के अन्तस्संबंधों पर ही उसने अपनी कलात्मक ऊर्जा खर्च की और श्रेष्ठत्व को स्थापित किया। अलगाव और यथार्थ के अन्तस्संबंध पर अज्ञेय और मुक्तिबोध ने भिन्न नजरिए से विचार किया। मुक्तिबोध ने इस क्रम में अलगाव को पूंजीवाद की आलोचना के साथ पेश किया जबकि अज्ञेय ने अलगाव को स्वायत्ता बनाकर,पूंजीवाद से अलग करके पेश किया। अज्ञेय के यहां अलगाव में जीने, अलगाव की यथास्थितियों के सुंदर चित्र हैं। अलगाव में मानवीय द्वंद्व के चेतन और अवचेतन के स्वायत्ता चित्र हैं। ये ऐसे चित्र हैं। जिनमें भाषा का शिल्प अपने चरमोत्कर्ष पर है। कहानी कहने की कला अपने चरम पर है। कलात्मक अभिव्यक्ति का चरम मुक्तिबोध और अज्ञेय में अंतत: अपने चरम पर पहुँचकर निष्पन्न रूप अख्तियार कर लेता है।

हिन्दी के साहित्यकारों में यथार्थ के चित्रण की एक परंपरा नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन में मिलती है। इन लेखकों के यहां अलगाव मुद्दा नहीं है, बल्कि यथार्थ केन्द्रीय मुद्दा है। यथार्थ का इन तीनों लेखकों में प्रबल आग्रह है। जबकि अज्ञेय और मुक्तिबोध में अलगाव के प्रति आग्रह है। बुनियादी तौर यही दो धाराएं हैं जो हिन्दी के सर्जनात्मक परिदृश्य को ज्यादा प्रभावित किए हुए हैं। इन दोनों में एक साम्य है ,ये दोनों धाराएं अपने -अपने तरीके से एक चीज को बार-बार व्यक्त करती हैं कि साहित्य का चरित्र बदल रहा है। साहित्य का संदर्भ और साहित्य की उत्पादन प्रक्रिया बदल रही है। इस समूचे सर्जनात्मक संदर्भ में साहित्य की अवधारणा ,साहित्य की भूमिका, साहित्यकार की भूमिका बदली है।

यथार्थ और अलगाव में वर्गीकृत इन दोनों धाराओं में दूसरी साझा चीज है लोकतंत्र की अवहेलना अथवा लोकतंत्र के प्रति अस्वीकार का भाव। जबकि सच यही है कि लोकतंत्र के बिना किसी भी चीज का मूल्यांकन संभव नहीं है। लोकतंत्र एक ठोस वास्तविकता है। लोकतंत्र के अभाव में यथार्थ और अलगाव किसी को भी विश्लेषित करना संभव नहीं है। लोकतंत्र की आलोचना तब ही सार्थक शक्ल अख्तियार ग्रहण करती है जब आप उसमें शिरकत करें। लोकतंत्र को अस्वीकार करके,पलायन करके,उसके प्रति घृणाभाव पैदा करके किसी भी किस्म की दीर्घकालिक विमर्श तैयार करना संभव नहीं है। लोकतंत्र को निरर्थकताबोध और गुस्से के आधार पर समझना संभव नहीं है।

लोकतंत्र में आलोचना और बहिष्कार ,अलगाव और लगाव,यथार्थ और अयथार्थ, गुस्सा और अनालोचनात्मकता आदि के लिए पर्याप्त जगह है। लोकतंत्र में स्त्री के गर्भाशय की तरह लोच है। आप चाहें क्रांतिकारी हों या प्रतिक्रांतिकारी हों, सभी के लिए लोकतंत्र में जगह है। लोकतंत्र की शक्ति ही यही है कि इसमें सबके लिए जगह है। लोकतंत्र कभी पलायन और अनालोचनात्मकता से समृध्द नहीं होता बल्कि आलोचनात्मक नजरिए से अपने को समृध्द करता है। हरीश भादानी की कविता मूलत: लोकतंत्र की आलोचना में लिखी कविता है इसमें लोकतंत्र का अस्वीकार नहीं है बल्कि लोकतंत्र के अन्तर्विरोधों पर अंगुली रखी गयी है।

लोकतंत्र में आप जितने भी आयामों से चित्रण करेंगे लोकतंत्र उन्हें जगह देता है। अलगाव और यथार्थ की परंपरा को लोकतंत्र की कसौटी पर कसने की जरूरत है। लोकतंत्र की कसौटी पर कसने की बजाय हमने समाजवाद के परिप्रेक्ष्य में ही यथार्थ और अलगाव की साहित्यधारा को परखा है। समाजवाद की कसौटी पर लोकतांत्रिक देश के साहित्य को परखना सही नहीं होगा। भारत का सर्जनात्मक कसौटी का पैमाना लोकतंत्र है।

लोकतंत्र को शिरकत और लोकतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया के जरिए ही समृध्द कर सकते हैं। पलायन,अस्वीकार,धिक्कार के विमर्श में लोकतांत्रिकीकरण के लिए कोई जगह नहीं है। अत: जब लेखक लोकतंत्र के अन्तर्विरोधों को पेश करता है तो मूलत: लोकतंत्रविरोधी रूझानों की आलोचना करता है। यह कर्ाश् हरीशजी ने रूढिबध्दता से मुक्त होकर किया है। कहीं-कहीं रूमानी भाव भी व्यक्त हुआ है। किंतु समग्रता में लोकतंत्र के प्रति वे रूमानियत से पेश नहीं आते। बल्कि मजदूरवर्ग के प्रति रूमानियत ज्यादा है। अनालोचनात्मक भाव ज्यादा है।

जिन रचनाकारों ने लोकतंत्र की तीखी आलोचना पेश की है उनका सबसे बड़ा योगदान है 'पावर' के केन्द्र में सत्ताा की जगह 'साधारण मनुष्य' को प्रतिष्ठित करना। 'साधारण जनता' की सर्जनात्मक और उत्पादक शक्ति को स्थापित करना। इसका मूल लक्ष्य है उस धारणा को खंडित करना जो यह मानती है कि राजसत्ताा ही सर्वोपरि है।

हरीशजी किसी किस्म की हायरार्की को नहीं मानते। हायरार्की को अस्वीकार करते हुए वैकल्पिक संबंधों को रूपायित करते हैं। जनता के अधिकारों को लेकर आलोचनात्मक संवाद करते हैं, हस्तक्षेप करते हैं। इसके कारण पूंजी और श्रम के संबंधों की बदली हुई प्रक्रियाओं की ओर ध्यान खींचते हैं। वे यह भी ध्यान खींचते हैं कि सत्ताा की आर्थिक नीतियां और गतिविधियां किस तरह प्रभावित कर रही हैं। सत्ताा की गतिविधियों को चित्रित करने का प्रधान कारण है राजनीति को सत्ताा से पृथक् करना।

हरीशजी ने लोकतंत्र की तीखी आलोचना पेश की है उनकी आलोचना का प्रधान लक्ष्य है सत्ताा और जनसंघर्षों के बीच के अन्तर्विरोधों को उभारना। यह रेखांकित करना कि किस तरह ये अन्तर्विरोध लगातार गहरे हो रहे हैं। साथ ही सत्ता के खिलाफ संघर्ष का बिंदु किस तरह लगातार स्थानान्तरित हो रहा है। सत्ता के साथ वर्तमान के अन्तर्विरोधों को चित्रित करते हुए यह भी बताना चाहते हैं कि सत्ताा कैसे वर्तमान को प्रभावित कर रही है।

लोकतंत्र की आलोचना के पैराडाइम का मूलाधार है नागरिक समाज। हिन्दी के रचनाकार बार-बार इसी नागरिक समाज की ओर ही लौटते हैं। कहीं कहीं इस नागरिक समाज पर समाजवाद का मुखौटा भी लगा है। नागरिक समाज के परिप्रेक्ष्य में आलोचना पेश करने के नाते हिन्दी कविता में खासकर बहुलता,सम्मिश्रण और कृत्रिमता का तत्व चला आया है। लेखक ने वस्तुकरण के संदर्भ को अस्वीकार करते हुए जनता के यथार्थ को चित्रितकिया है। हरीशजी विचारधारा के वस्तुकरण्ा को भी अस्वीकार करते हैं और विचारधारा को आम आदमी के संबंधों के रूप में ही चित्रित करते हैं। मनुष्यों के यथार्थ संबंधों को चित्रित करते हुए व्यक्ति और सत्ताा के संबंधों की मौजूदा व्यवस्था के वैकल्पिक रूपों को चित्रित करते हैं। विकल्पों की खोज के चक्कर में अतीत और मिथकों में लौटते हैं। मिथक और अतीत में लौटना मूलत: विकल्प की तलाश है इसे अतीतजीवी नहीं मानना चाहिए। इसके जरिए व्यक्ति को सत्ताा के साथ नाभिनालबध्द करने की मानसिकता को चुनौती देते हैं। व्यक्ति और सत्ताा के संबंध को विच्छेद करते हुए राजनीतिक हस्तक्षेप करते हैं।

व्यक्ति और सत्ताा का संबंध शिखर की राजनीति पर जोर देता है। जबकि लोकतांत्रिक आलोचना पेश करने वाले रचनाकार इसके विपरीत जमीनी राजनीति पर जोर देते हैं। शिखर की राजनीति पूंजी की राजनीति है जमीनी राजनीति पूंजी के वर्चस्व के निषेध की राजनीति है। जीवन से लेकर प्रकृति तक सभी क्षेत्रों में इस परिप्रेक्ष्य का हरीशजी ने विस्तार किया है। मूल्यों के सामाजिक पक्ष का चित्रण करते हुए मूल्यों के संकट की ओर ध्यान खींचा है।

हरीशजी बताते हैं कि किस तरह वर्ग,परिवार,राजनीतिक दल,नेता,एकल परिवार,पगारजीवी श्रमिक और किसान किस तरह संकटग्रस्त हैं। यही वह बिंदु है जहां पर मिशेल फूको के बायोपावर की अवधारणा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उपरोक्त क्षेत्रों में संकट के समाधान के परम्परागत तरीके बेमानी हो जाते हैं। आम जीवन को अनुशासित करने में सत्ताा असमर्थ होती है। परंपरागत तरीके से आम जीवन को नियंत्रित करना संभव नहीं होता। परंपरागत तरीके से संकट को नियंत्रित करने अथवा समाधान करने का अंतिम प्रयास था जून 1975 में लगाया आंतरिक आपात्काल जो बुरी तरह असफल साबित हुआ। आंतरिक आपात्काल हटाए जाने बाद सामाजिक नियंत्रण के नए तरीके इजाद किए गए। नियंत्रण के नए विज्ञान का आरंभ हुआ। पहले संकट के समाधान की बात सोची जाती थी। किंतु आपात्काल हटने के बाद संकट के रूप में चीजों को देखना सत्ताा ने बंद कर दिया। सत्ताा और साहित्यिक विपक्ष दोनों ने ही यह स्वीकार कर लिया कि लोकतंत्र के बिना कुछ भी संभव नहीं है। पहले लोकतंत्र बेमानी था। अब लोकतंत्र ही एकमात्र विकल्प था। अब लोकतंत्र के संकट को संकट न कहकर बीमारी कहा जाने लगा और बीमारी को रोकने के लिए पहले से तयशुदा दवाएं सुझायी जाने लगी।

राज्य पहले की तुलना में ज्यादा चौकन्ना और नजरदारी करने लगा। इससे नियंत्रण के तरीके और बारीक और पैने होने लगे। नागार्जुन ने जिस तरह प्रत्येक राजनीतिदल और विभिन्न दलों के नेताओं,विभिन्न वर्ग के लोगों के आपराधिक चरित्र का उद्धाटन किया है उससे एक ही संदेश निकलता है कि अब समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपराध का वाहक बन गया है। अब जीवन स्वयं को ही हजम कर रहा है। जनता पर नजरदारी का लक्ष्य अपराधों को रोकना नहीं है ,अपराध के प्रमाण जुगाड़ करना नहीं है, बल्कि नजरदारी का लक्ष्य है बाधित करना। स्वीकृति को बाधित करना ,रोकना। आत्मसात करने के लिए मजबूर करना, स्वत: ही शोषण के लिए तैयार करना,सत्ताा के प्रति जिम्मेदारियों की वैधता को अंदर बिठाना। ठीक यही अनुभूति संस्थानों में पैदाकरना। परंपरागत नियंत्रण में ढिलाई आ जाती है जिसके कारण घेटो, शरणार्थी शिविर,विस्थापन,स्थानान्तरण (माइग्रेशन) कानूनहीनता, आदि का तेजी से विस्तार होता है।

पहले नारा था ''जियो और जीने दो'' अब नया नारा है ''जीने दो , जहां तक मौत न हो जाए।'' इसी नारे के आधार पर सत्ताा के सारे प्रयास व्यक्ति के शरीर नियंत्रण के उपायों पर केन्द्रित हैं। इस प्रक्रिया में व्यक्ति के अंदर और बाहर औपनिवेशिकता ने कब्जा जमा लिया है। यह औपनिवेशिकता कभी किसी बहाने कभी किसी बहाने अपना विस्तार करती रही है। यही वह बिंदु है जहां पर उदार या लिबरल स्वायत्ताता की धारणा हमारे बीच में दाखिल होती है और हम प्राइवेट और सार्वजनिक को नए सिरे से परिभाषित करते हैं। यही वह बिंदु है जहां पर व्यक्ति ने सार्वजनिक को अपने बाहर माना। राजनीति को बाहरी जगत का हिस्सा माना। यह वह जगह है जहां व्यक्तिगत के एक्शन या भूमिका अन्य के सामने खुले होते हैं। और अन्य से स्वीकृति हासिल करने की कोशिश करते हैं। अंत में प्राइवेट और सार्वजनिक का भी भेद खत्म हो जाता है। शरीर को नए सिरे नियंत्रित करने के नए-नए उपाय आने लगे हैं और शरीर को मुक्ति के प्रयासों से मुक्ति दे दी गयी है। इसका प्रत्युत्तार हरीशजी अपने तरीके से खोजते हैं और बार-बार शरीर के ब्यौरे-विवरण और उनकी स्वायत्ता सत्ताा को उभारते हैं। हरीशजी अपनी कविताओं में चित्रण का काम जिस तरह करते हैं उससे लगता है कि आप कोई तमाशा देख रहे हों। यह तमाशा अथवा नजारे वाले तत्व बेहद मुश्किल तत्व है। इसका टेलीविजन नजारे के साथ गहरा संबंध है।

गुई देवोर्द के शब्दों में '' नजारा सभी किस्म की सामूहिकता के रूपों को खत्म कर देता है। सामाजिक भूमिका का व्यक्तिकरण और उसका पृथक स्वचालितीकरण और पृथक वीडियो स्क्रीन ने नए किस्म की मास सामाजिकता को आरोपित किया है। इसने नए किस्म की भूमिका और विचारों की एकरूपता को पैदा किया है।''

अब मैं एक अन्य पहलू की ओर आना चाहता हूँ, यह पहलू है वेदों की ओर हरीशभादानी के आकर्षण का। वेदों की ओर जिस समय हरीशजी लौटे संयोग की बात है उसी समय रामविलास शर्मा भी लौटे। सवाल यह है कि ये दोनों वेदों की ओर क्यों लौटे ? वेद एक रंगत और एक वर्ण और एक विचारधारा की किताब नहीं है। वेद किसी एक व्यक्ति की रचना भी नहीं हैं। इन्हें सैंकड़ों वर्षों के अंतराल में अनेक लोगों ने रचा। वेद मनुष्य की क्रांतिकारी स्वतंत्रता और भाईचारे का आईना हैं। वेद मनुष्य के क्रमश: मानवीय विकास और मुक्ति का दस्तावेज हैं। वेदों में आदर्शों, समर्पण, और शक्तिशाली के प्रति समर्पण का भाव है। वेदों में मनुष्य की पूर्ण स्वतंत्रता का भाव निहित है। यही वजह है वेद बार-बार याद आते हैं और मनुष्य के जीवन में दाखिल होते हैं, कभी संस्कार के रूप में कभी पूजा के मत्रों के रूप में कभी अन्य रूपों में। वेदों के पास जाने का अर्थ यह भी है कि आप अपनी यथार्थ के प्रति पैनी नजर विकसित करना चाहते हैं। साथ ही शक्ति के प्रति पलायनवादी रूझान भी पैदा करते हैं। वेदों के पास जाने का अर्थ यह भी है कि हम इतिहास के पास नहीं जाना चाहते। इतिहास से पलायन करते हैं।

वेदों के पास जाने का अर्थ यह भी है कि व्यक्ति को उसकी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के साथ जोड़कर देखना। यह रेखांकित करना कि व्यक्ति की जड़ें उसके यथार्थ सामाजिक जीवन में होती हैं। वेदों के पास जाने का एक अन्य कारण यह भी बताना है कि शब्द,अवधारणा और उनके अर्थ जीवनानुभवों से बने हैं। इनमें आए परिवर्तन इस बात का संकेत है कि व्यक्ति बदला है। उसके अनुभव बदले हैं। यह बदलाव दुतरफा है ,इसे विकास और ह्रास दोनों ही दिशाओं में देख सकते हैं।

कोई भी अवधारणा स्थायित्व और परिवर्तन दोनों को ही अपने अंदर समेटे होती है। यह जीवंत मनुष्य के अनुभव का प्रतीक भी है। प्रत्येक अवधारणा की अपनी उम्र होती है। यदि अवधारणा का अपने अनुभव से अलगाव नहीं हुआ है तो आप उसे सहज ही समझ सकते हैं। किंतु जब किसी अवधारणा का अपने जीवंत अनुभव से अलगाव हो जाता है तो वह अपने यथार्थ से पृथक हो जाती है। इसके बाद अवधारणा सिर्फ व्यक्ति के दिमाग में सज्जित चीज बनकर रह जाती है।

वेदों का इतिहास मंत्रों का इतिहास नहीं है। बल्कि विचारधारा का इतिहास है। यह विचारों के निर्माता वास्तव लोगों का इतिहास है। वेद फिक्शन नहीं है। बल्कि ईश्वर के बारे में ठोस भौतिक आधार पर निर्मित धारणाओं का समुद्र है। जीवन-जगत के तमाम प्रपंचों का आदिम दस्तावेज हैं। आरंभ में मनुष्य के पास अनुभव थे और कालान्तर में इन्हीं अनुभवों को अमूर्त धारणाओं में वेदों में लिपिबध्द किया गया। वेद मूलत: अनुभव और विचार का अवधारण्ाात्मक रूप हैं। वेदों में जिन अवधारणाओं को बताया गया है वे जीवनानुभवों को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पातीं। फलत: विचारधारा में रूपान्तरण के लिए मजबूर हैं। अवधारणा और संकेत की सबसे बड़ी खूबी है कि इसमें आप आसानी से अपनी बात कह सकते हैं किंतु इन दोनों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इनका अन्य पृथक्कृत चीजों के लिए भी आसानी से इस्तेमाल हो सकता है।

वेदों में अलगाव और आदर्शीकरण का फिनोमिना भी अन्तर्निहित है। जिसके कारण वेद पूरी तरह व्यवस्थित और निष्पन्न नजर आते हैं। वेदों का व्यवस्थित और निष्पन्न रूप विचारों की सुनिश्चितता की ओर ले जाता है। मुश्किल यह है कि मनुष्य के विचार कभी अंतिम नहीं होते। विचारों में अपडेटिंग चलती रहती है। फलत: विचारों में क्षेपक भी मिलते हैं। पुरानी रचनाओं में क्षेपक भी मिलते हैं। वेदों में जाने का प्रधान कारण है व्यवस्थित संसार की खोज करना। पूंजीवादी अराजकता,आदर्शहीनता और अलगाव से दूर शांत,आदर्श जीवन के विकल्पों की खोज। वेद तब ही याद आते हैं जब प्रचलित विकल्पों से ऊर्जा नहीं मिलती,प्रेरणा नहीं मिलती। वेदों में अजस्र ऊर्जा है ऐसी ऊर्जा है जो नए किस्म के विकल्पों की सृष्टि करती है।

(जगदीश्‍वर चतुर्वेदी। मथुरा में जन्‍म। कलकत्ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हिंदी वि‍भाग में प्रोफेसर। मीडि‍या और साहि‍त्‍यालोचना का वि‍शेष अध्‍ययन। तकरीबन 30 कि‍ताबें प्रकाशि‍त। जेएनयू से हिंदी में एमए एमफि‍ल, पीएचडी। संपूर्णानंद संवि‍वि‍ से सि‍द्धांत ज्‍योति‍षाचार्य। फोन नं 09331762360 (मोबाइल) 033-23551602 (घर)। ई मेल jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in पता : ए 8, पी 1/7, सीआईटी स्‍कीम, 7 एम, कोलकाता 700054)

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