हाल ही में चीन प्रशासन ने तिब्बत के दलाईलामा के अरूणांचल दौरे पर गंभीर आपत्ति व्यक्त की थी और इस आपत्ति का भारत सरकार ने सही प्रतिवाद किया और कहा भारत में दलाईलामा कहीं भी आ जा सकते हैं। सवाल यह है दलाईलामा से चीन इतना खफा क्यों है ? दलाईलामा का कसूर क्या है ? वे अपनी मातृभूमि से अभी भी बेदखल होकर भारत में शरणार्थी की तरह रह रहे हैं। उनके साथ हजारों तिब्बती शरणार्थी भी रह रहे हैं। दलाईलामा ने तिब्बत के सच को उजागर किया है। तिब्बत के सच को चीन प्रशासन पसंद नहीं करता।चीनी प्रशासन को शर्म आनी चाहिए कि वह अपने देश में नागरिकों को सम्मान और सुरक्षा नहीं दे पाया और उसके हजारों शरणार्थी पांच दशक से भी ज्यादा समय से भारत में रह रहे हैं। भारत की नीति है शरणार्थी को शरण देने की। भारत अभी तक उस नीति का पालन करता रहा है। इस नीति का आधार है प्राचीन अतिथि देवो भव: का सिद्धान्त। अब थोड़ा तिब्बत की तरफ भी झांककर देख लें।
चीन के विकास की सबसे कमजोर कड़ी है तिब्बत। सबसे बड़ी चुनौती भी तिब्बत है। सीआईए की अध्यात्मवादी सामंती -कठमुल्लेपन की समर्थक विदेश नीति की पराजय का सबसे बड़ा प्रतीक भी तिब्बत है। तिब्बत की स्थिति बेहद जटिल और उलझी हुई है। तिब्बत चीन का सबसे पिछड़ा क्षेत्र है। गरीबी चरम पर है। स्थानीय तिब्बती जनसंख्या को जातिभेद और उत्पीड़न के वैसे ही अनुभवों में जीना पड़ रहा है जैसा फिलिस्तीनियों को अपने देश और बाहर जीना पड़ रहा है। तिब्बत में बाहरी चीनी नागरिकों का वर्चस्व है । स्थानीय लोगों को बाहर से लाकर बसाए गए चीनी नागरिकों के रहमोकरम और वर्चस्व में रहना पड़ रहा है । यह वैसे ही है जैसे फिलीस्तीनी इलाकों में जबर्दस्ती यहूदी तत्ववादियों को इस्रायल ने पुनर्वास बस्तियों में बसा दिया है। इन बस्तियों में फिलीस्तीनी दोयम दर्जे के नागरिक हैं। तकरीबन यही स्थिति तिब्बती नागरिकों की तिब्बत में है। तिब्बती लोग तिब्बत में दोयम दर्जे के नागरिक हैं। भयानक गरीबी और अभाव में जी रहे हैं। फिलीस्तीनियों की तरह ही लाखों तिब्बती दसियों वर्षों से बाहर शरणार्थी की तरफ जीवनयापन कर रहे हैं।
तिब्बत की वास्तविकता किसी भी तर्क से यह संकेत नहीं देती कि तिब्बत में सब कुछ ठीक है। तिब्बत में यदि सब कुछ ठीक है तो फिर तिब्बत के लोगों से डर क्यों ? उनको दोयमदर्जे का नागरिक जैसा बर्ताव क्यों झेलना पड़ रहा है ?
तिब्बत की कुल 27 लाख की जनसंख्या में अस्सी फीसदी किसान और गड़रिए हैं । तिब्बत को चीन का सबसे गरीब प्रान्त माना जाता है। कुल आबादी में से दस लाख लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। इनकी 150 डालर से कम सालाना आय है। तिब्बत की समूची अर्थव्यवस्था पर हेन जाति के बाहरी चीनियों का कब्जा है। इसके अलावा तिब्बत के अभिजनवर्ग का एक हिस्सा जो तिब्बत प्रशासन का पिछलग्गू है उसका आर्थिक जीवन पर वर्चस्व है। तिब्बत के अधिकांश मूल बाशिंदे अर्थव्यवस्था के दायरे के बाहर खदेड़ दिए गए हैं।
ह्यूमन राइट्स वाच नामक संगठन की 2007 की रिपोर्ट बताती है कि चीन सरकार ने गड़रियों को उनके पेशे और इलाके से खदेड़ने का सन् 2000 में फैसला लिया और इस तरह सीधे सात लाख गड़रियों के जीवन पर ही हमला बोल दिया । यह कार्य किया गड़रियों के शहरीकरण के नाम पर। चीनी प्रशासन का मानना है कि गड़रियों का शहरीकरण आधुनिक नवजागरण है।
असल में इस कोशिश का मूल लक्ष्य गड़रियों को आधुनिक बनाना नहीं है बल्कि उनकी जमीनों को विभिन्न प्रकल्पों के लिए हथियाना है। अध्ययन से यह भी पता चला है अधिकांश गड़रिए सही ढ़ंग से चीनी भाषा नहीं बोल पाते ऐसी अवस्था में उन्हें शहरों की ओर यदि ठेला जाएगा तो वे निचले स्तर के ही काम कर पाएंगे। उनके पास पैसा नहीं है जिससे ये लोग शहर में आकर व्यापार कर सकें। कुछ गडरियों ने किसानी का जीवन शुरू कर दिया है और गड़रिए का जीवन त्याग दिया है। किंतु इनको सरकार की तरफ से अभी तक कोई मदद नहीं मिली है।
चीनी प्रशासन नहीं चाहता कि गड़रिए अपने पेशे में रहें, वे चाहते हैं कि वे शहरों में आकर शहरों में मजदूरी करें। गड़रियों को डर है यदि वे एक बार अपना पुराना पेशा त्याग देते हैं तो नए भवन,सड़क आदि बन जाने के बाद उनके पास और कोई काम नहीं बचेगा तब वे भीख मांगने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगे। गड़रियों को बसाने के नाम पर शहरों में रहने की जगह दी गयी है और इसका चीनी मीडिया ने खूब प्रचार किया है किंतु वास्तविकता यह है गड़रियों को शहरों में रहने के लिए जिन बस्तियों में बसाया गया है वे बस्तियां नहीं बल्कि पुराने जेलखाने हैं। ये नए घर नहीं हैं। पुराने जेल के कमरों पर नए दरवाजे और खिडकियां लगा दी गयी हैं। इनमें न तो पानी है और न बिजली की सुविधा है। जबकि चीनी सरकार ने यह प्रचार किया कि गड़रियों को नए घर दिए गए हैं जिनमें सभी सुविधाएं हैं। यह भी प्रचार किया गया कि सरकार इन्हें खाद्य सब्सीडी देगी किंतु अभी तक कुछ भी नहीं मिला है।
तिब्बत की जनता निश्चित रूप से खुश नहीं है। आम तिब्बती को तिब्बत में भयानक उपेक्षाभाव से रहना पड़ रहा है। तिब्बत स्थित बौध्द धर्म के खिलाफ भी स्थानीय स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टी का प्रचार चल रहा है। तिब्बत में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में तिब्बती लोग हाशिए पर हैं और बाहर से लाकर बसाए गए चीनी नागरिकों का वर्चस्व है। यह एक तरह से स्थानीय लोगों को सुनियोजित ढ़ंग से हाशिए पर डालने की कोशिश है। आश्चर्य की बात है कि तिब्बत में तिब्बती लोग कार्यक्षेत्र से लेकर व्यापार तक हाशिए पर हैं। यह चीनी राष्ट्रवाद का सबसे भयावह चेहरा है। यह नस्लवादी भेदभाव का जघन्यतम रूप है जिसका फिलीस्तीन में यहूदियों की अवैध बस्तियां बसाकर सबसे पहले इस्रायल ने प्रयोग किया था। आज भी फिलीस्तीनी इलाकों में ये अवैध बस्तियां सबसे बड़ा सिरदर्द हैं। सवाल उठता है यह कैसा समाजवाद है जो स्थानीय लोगों को हाशिए पर पहुँचा देता है ?
चीन प्रशासन स्वतंत्र मीडिया कवरेज से भागता रहा है और प्रायोजित पत्रकारिता को बढ़ावा देता रहा है। इसके कारण तिब्बत का सच बाहर नहीं आ पा रहा। ऐसी अवस्था में मानवाधिकार संगठनों और तटस्थ ढ़ंग से चीन और तिब्बत का मूल्यांकन करने वालों की राय का महत्व बढ़ जाता है। उनलोगों के द्वारा जो सामग्री पेश की जा रही है उस पर ही सबसे ज्यादा भरोसा किया जा सकता है। अनेक किस्म के पूर्वाग्रहों के बावजूद मानवाधिकार संगठनों और स्वतंत्र विचारकों के द्वारा प्रकाशित सामग्री में सच के प्रति आग्रह है और वे जोखिम उठाकर उन बिंदुओं पर रोशनी डालते हैं जिनके आधार पर सच को सही परिप्रेक्ष्य में खोल सकते हैं।
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ReplyDeleteसायद आपको यह प्रोग्राम अच्छा लगे!
c.i.a.thik hai.
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