10.10.09

पत्रकार
सपनों की दुनिया भी अजीब होती है
जिंदगी के करीब होती है
हो जाये पूरी तो नसीब
नहीं तो ये गरीब होती है
अक्सर आता है सपना मुझे
की मैं पत्रकार हूँ
समाज की हर बुराई से लड़ने को
तैयार हूँ
लोगों की चेतन जगा रहा हूँ
समाज से हर बुराई को भगा रहा हूँ
पर मैं तो अपाहिज हूँ हांथों से
पकड़ नहीं सकता कलम
इन हांथों से
आपहिज होने के कारण रह जाती है
कभी कलम गिरवी
बुझती है आग पेट की
पर मान में है कुछ दहकती
क्या पेट की है इतनी बड़ी मजबूरी
मन से है पेट की इतनी ज्यादा दूरी
अब तो मैं सपनो की दुनिया में ही रहना चाहता हूँ
पेट तो छोटा कर आदर्श में ही जीना चाहता हूँ. - DEVENDRA
(ये मेरे एक सहपाठी उर्फ़ छोटे भाई ने कविता लिखी है पत्रकारों पर जो खुद एक पत्रकार है ,रायपुर मे.इसे मै आप लोगो से बटना चाहती हु...)

3 comments:

  1. sacchai hai, patrakarita ka pesa badnam ho raha hai. reality ko accept karna chahiye.


    Vikas Singh, Raipur

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  2. yeh ek sachai hai jise juthlaya nahi ja sakta




    sanjay
    haryana

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