संताल परगना की साहित्यिक कृतियों तथा प्रतिभाओं को उपेक्षा के पत्थर तले दबा दिया गया
नित्यानंद
संताल परगना — भारत का वह भू-भाग जिसने अपनी खनिज संपदा से देश को समृद्धि दी, जिसकी दुर्गम राजमहल की पहाड़ियों ने सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंकने वालों को सुरक्षित शरणस्थली दिया, जिसने तब, जबकि भारत में अंग्रेजों का अत्याचार शुरू ही हुआ था, पहाड़ियां विद्रोह के रूप में सबसे पहले स्वाधीनता आंदोलन का शंखनाद किया, सामाजिक विषमताओं के विरूद्ध और शोषण-मुक्त समाज बनाने के लिये जहां के वीर सपूत सिद्धो-कान्हो ने भारत की प्रथम जन-क्रांति को जन्म दिया; जिसके अरण्य-प्रांतर में महादेव की वैद्यनाथ नगरी का परिपाक हुआ — वही संताल परगना सदियों से उपेक्षित रहा। पहले अविभाजित बिहार, बंगाल, बंग्लादेश और उड़ीसा, जो सूबे-बंगाल कहलाता था, की राजधानी बनने का गौरव जिस संताल परगना के राजमहल को था, उसी संताल परगना की धरती को अंग्रेजी शासन के दौरान बंगाल प्रांत के पदतल में पटक दिया गया। जब बिहार प्रांत बना तब भी संताल परगना की नियति जस-की-तस रही। हाल में झारखण्ड बनने के बाद भी संताल परगना की व्यथा-कथा खत्म नहीं हुई। आधुनिक इतिहास के हर दौर में इसकी सांस्कृतिक परंपराएं आहत हुई, ओजमय व्यक्तित्वों की अवमानना हुई और यहां की समृद्ध साहित्यिक कृतियों तथा प्रतिभाओं को उपेक्षा के पत्थर तले दबा दिया गया।
तब भी, जबकि बिहार और झारखण्ड एक हुआ करता था, अनेक समृद्ध साहित्यिक विभूतियों का आविर्भाव एकीकृत बिहार में होता रहा — परमेश, कैरव, द्विज, दिनकर, बेनीपुरी, पंकज, रेणु आदि ने प्रदेश के हिन्दी साहित्य को उच्चतम शिखर तक पहुंचाया, लेकिन यहां भी संताल परगना हत्भाग्य और उपेक्षित ही रहा। दिनकर, बेनीपुरी, रेणु आदि का नाम तो बृहत्तर हिन्दी-जगत में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया, लेकिन संताल परगना के साहित्याकाश के महान नक्षत्र — परमेश, कैरव, पंकज और न जाने कितने प्रतिभाशील लेखक, कवि अपने जीवन-काल में अपनी असाधारण भूमिका निभाने के बावजूद विस्मृति की तमिश्रा में ढकेल दिये गये।
पं० जनार्दन मिश्र ’परमेश’ का नाम संताल परगना की साहित्यिक परंपरा में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। परमेश अर्थात् वह व्यक्तित्व जिसने साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम चलाई। ब्रजभाषा, अवधी और खड़ी बोली में रचित जिनकी सैकड़ों कविताओं ने जिन्हें अपने युग के सर्वाधिक प्रतिभाशाली और विलक्षण कवि की ख्याति दिलाई थी, वह परमेश आज उपेक्षा के कारण गुमनामी में विलीन हो चुके है।
परमेश के साहित्यिक शिष्य और अनुज-तुल्य पं० बुद्धिनाथ झा ’कैरव’ का भी यही हश्र हुआ। हिन्दी जगत में कैरव जी की “साहित्य साधना” ने समीक्षा एक नयी ’पृष्ठभूमि’ तैयार की, लेकिन इसके बावजूद आज कैरव कहां है? साहित्यिक परिदृश्य में कैरव का नामलेवा कौन है?
आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’– परमेश और कैरव– दोनों के शिष्य ही नहीं योग्यतम उत्तराधिकारी भी थे। परमेश, कैरव और पंकज की बृहत्त्र्यी के जो यशस्वी तृतीय स्तंभ थे, के साथ तो और भी अधिक अन्याय हुआ। संताल परगना में साहित्य-सृजन के संस्कार को एक आंदोलन का रूप देकर नगर-नगर गांव-गांव की हर डगर पर ले जाने वाली ऐतिहासिक-साहित्यिक संस्था, पंकज-गोष्ठी के प्रेरणा-पुंज और संस्थापक सभापति पंकज जी ने इतिहास जरूर रचा, परन्तु हिन्दी जगत ने उन्हें भुलाने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लोक-स्मृति का शाश्वत अंग और जनश्रुति का नायक बन चुके पंकज की भी सुधि हिन्दी-जगत के मठाधीशों ने कभी नहीं ली। लेकिन पंकज के ही शब्दों में –
रोकने से रूक सकेंगे
क्या कभी गति-मय चरण।
कब तलक है रोक सकते
सिंधु को शत आवरण।
जो क्षितिज के छोर को है
एक पग में नाप लेता।
क्षुद्र लघु प्राचीर उसको
भला कैसे बांध सकता।
अस्तु, इतिहास रचने वाले, संताल परगना के लोक-जीवन में अमर हो जाने वाले पंकज जी के कुछ ऐसे पहलूओं को उद्घाटित करना इस लेख का अभीष्ट है, जिनसे हम सब प्रेरणा प्राप्त करते रहते है।
संताल परगना मुख्यालय दुमका से करीब 65 किलोमीटर पश्चिम देवघर जिलान्तर्गत सारठ प्रखंड के खैरबनी ग्राम में 30 जून 1919 को ठाकुर वसंत कुमार झा और मालिक देवी की तृतीय संतान के रूप में ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ का जन्म हुआ था। पंकज जी के जन्म के समय उनका ऐतिहासिक घाटवाली घराना — खैरबनी ईस्टेट विपन्न और बदहाल हो चुका था। साहुकारों के कर्ज के बोझ तले कराहते इस घाटवाली घरानें में उत्पन्न पंकज ने सिर्फ स्वयं के बल पर न सिर्फ खुद को स्थापित किया बल्कि अपने घराने को भी विपन्नता से मुक्त किया। परिवार का खोया स्वाभिमान वापस किया। लेकिन वह यहीं आकर रूकने वाले नहीं थे। उन्हें तो सम्पूर्ण जनपद को नयी पहचान देनी थी, संताल परगना को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाना था। इसलिये कर्मयोगी पंकज प्रत्येक प्रकार की बाधाओं को लांघते हुए अपना काम करते चले गये। उन्होंने बंजर मिट्टी को छुआ तो लहलाते खेत उग आये, लोहे को हाथ लगाया तो सोना बन गया। लेकिन उनकी यह यात्रा नितान्त अकेली यात्रा थी। ’एकला चलो र’ के अनुगामी पंकज समाज और परिवार के सहारे के बिना ही अपने कर्म-पथ पर चल पड़ा था। इनका मूल मंत्र बना था “न दैन्यम् न पलायनम्”।
अध्यवसायी विद्यार्थी के रूप में ये हिन्दी विद्यापीठ, देवघर पहुंचे। वहां द्विज, परमेश और कैरव जैसे आचार्य के सान्निध्य में इनमें साहित्य साधना और राष्ट्रीयता की भावना का बीजारोपण हुआ। महात्मा गांधी की ऐतिहासिक देवघर यात्रा के समय स्वयंसेवी छात्र के रूप में इन्हें गांधी जी की सेवा और सान्निध्य का दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ, जिसने इनकी जीवनधारा ही बदल दी। ये आजीवन गांधी जी के मूल्यों के संवाहक बन गये। जीवन-पर्यन्त खादी धारण किया और अंतिम सांस लेने के दिवस तक “रघुपति राघव राजा राम” प्रार्थना का सुबह और सायं गायन किया। “प्रभु मेरे अवगुण चित्त ना धरो”, इनका दूसरा सर्वप्रिय भजन था जिसे ये तन्मय होकर प्रतिदिन प्रात: एवं सन्ध्याकाल में गाते थे। किस कदर इन्होंने गांधी के मूल मंत्र को आत्मसात कर लिया था!
1942 में गांधी जी ने करो या मरो का मंत्र दिया। बस फिर क्या था? पहाड़िया विद्रोह, सन्यासी विद्रोह और संताल विद्रोह की भूमि संताल परगना में सखाराम देवोस्कर के शिष्यत्व में अरविंद घोष और वारिंद्र घोष की क्रांतिकारी विरासत तो थी ही, अमर-शहीद शशिभूषण राय, राम राज जेजवाड़े, पं० विनोदानंद झा समेत अनगिनत क्रांतिकारियों ने स्वाधीनता संग्राम की मशाल थाम रखी थी। इसी विरासत को आगे बढा़ते हुए 1942 के “अंग्रेजों भारत छोड़ो” आंदोलन में प्रफुल्ल पटनायक समेत कई क्रांतिकारियों के साथ-साथ युवा पंकज ने भी हुंकार भरी और इनके साथ चल पड़ा देवघर शहीद आश्रम छात्रावास के इनके शिष्यों की बानरी सेना। इनका खैरबनी का पैतृक घर गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों का अड्डा बन गया। क्रातिकारी गतिविधियों में भागीदारी के साथ-साथ इस साधनहीन साहसी ने लघुनाटकों को रचकर– उनका मंचन कराया, गीतों को लिखकर उसके सस्वर गायन से लोगों के अंदर छुपे हुए आक्रोश को अभिव्यक्ति दी और फिर क्रांति का तराना घर-घर में गूंजने लगा। सोई पड़ी अलसाई पीढ़ी में स्वाभिमान की अलख जगाई और प्रचंड उद्घोष किया –
मत कहो कि तुम दुर्बल हो
मत कहो कि तुम निर्बल हो
तुम में अजेय पौरूष है
तुम काल-जयी अभिमानी।
इस हुंकार में दंभ नहीं, सिर्फ आत्माभिमान भरा था, क्योंकि पौरूष की उद्दंडता भी उन्हें सह्य नहीं थी, इसिलिये तो उन्होंने साफ-साफ घोषणा की थी — –
हैं एक हाथ में सुधा-कलश
दूसरा लिये है हालाहल।
मैं समदरसी देता जग को
कर्मों का अमृत औ विषफल॥
उनके इसी पूर्णतावादी और संतुलित दर्शन ने उन्हें इतिहास का नायक बना दिया।
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया। अब देश के नव-निर्माण का सपना अपने युग के अन्य क्रांतिकारियों की तरह युवा पंकज ने भी देखा था जो इन पंक्तियों में प्रतिबिंबित हुआ है — –
जागरण-प्रात यह दिव्य अवदात बंधु,
प्रीति की वासंती कलिका खिल जाने दो
दूर हो भेद-भाव कूट नीति-कलह-तम
द्वेष की होलिका को शीघ्र जल जाने दो,
नूतन तन, नूतन मन, नव जीवन छाने दो,
ढल रही मोह-निशा मित्र, ढल जाने दो।
रोम-रोम पुलकित हो, अंग-अंग हुलसित हो
प्रभा-पूर्णज्योतिर्मय नव विहान आने दो।
परन्तु, अंग्रेजों की लंबी गुलामी के दौर में भारतीय उदात्त चरित्र के कुम्हला जाने के अवशेष शीघ्र सामाजिक चरित्र में प्रदर्शित होने लगे। जोड़-तोड़, राजनीति, सत्ता तक पहूंचने के लिये नैतिकता की तिलांजलि, चाटुकारिता और स्वाभिमान को गिरवी रखने की होड़ शुरू हो गयी। घात-प्रतिघात का दौर चल पड़ा। इन सब से इस दार्शनिक क्रांतिकारी कवि का हृदय व्यथित भी हुआ — –
बहुत है दर्द होता हृदय में साथी!
कि जब नित देखता हूं सामने –
कौड़ियों के मोल पर सम्मान बिकता है –
कौड़ियों के मोल पर इन्सान बिकता है!
किन्तु, कितनी बेखबर यह हो गयी दुनियां
कि इस पर आज भी परदा दिये जाती!
लेकिन इतनी आसानी से पंकज जी की उद्दाम आशा मुरझाने वाली नहीं थी, क्योंकि — –
छोड़ दी जिसने तरी मँझ-धार में
क्यों डरे वह तट मिले या ना मिले!
चल चुका जो विहँस कर तूफान में
क्यों डरे वह पथ मिले या ना मिले।
है कठिन पाना नहीं मंजिल, मगर
मुस्कुराते पंथ तय करना कठिन!
रोंद कर चलना वरन होता सरल
कंटकों को चुमना पर है कठिन।
1954 में पंकज जी के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। दुमका में संताल परगना महाविद्यालय की स्थापना हुई और पंकज जी वहां के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में संस्थापक शिक्षक बने। नियुक्ति हेतु आम साक्षात्कार की प्रक्रिया से अलग हटकर पंकज जी का साक्षात्कार हुआ। यह भी एक इतिहास है। पंकज जी जैसे धुरंधर स्थापित विद्वान का साक्षात्कार नहीं, बल्कि आम लोगों के बीच व्याख्यान हुआ और पंकज जी के भाषण से विमुग्ध विद्वत् समुदाय के साथ-साथ आम लोगों ने पंकज जी की महाविद्यालय में नियुक्ति को सहमति दी। टेलीविजन के विभिन्न कार्यक्रमों (रियलिटि शो आदि) में आज हम कलाकारों की तरफ से आम जनता को वोट के लिये अपील करता हुआ पाते है और जनता के वोट से निर्णय होता है। लेकिन आज से 55 साल पहले भी इस तरह का सीधा प्रयोग देश के अति पिछड़े संताल परगना मुख्यालय दुमका में हुआ था और पंकज जी उसके केन्द्र-बिन्दु थे। है कोई ऐसा उदाहरण अन्यत्र? ऐसा लगता है कि नियति ने पंकज जी को इतिहास बनाने के लिये ही भेजा था, इसलिये उनसे संबंधित हर घटना ऐतिहासिक हो गयी है। राजधानी दिल्ली व अन्य जगहों में बैठे हुए बुद्धिजीवियों और समालोचकों को इस बात से कितना रोमांच होगा या इसे वे कितना महत्व देंगे, यह मैं नहीं जानता, लेकिन इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह दुमका के सैकड़ों प्रबुद्ध नागरिक आज भी जीवित है, जिनकी स्मृति में ये दंतकथा के अमर नायक बन चुके हैं। संताल परगना महाविद्यालय ही नहीं यह पूरा अंचल इस बात का गवाह हैं कि आजतक पुन: कोई दूसरा पंकज पैदा नहीं हुआ।
पंकज-गोष्ठी तो मानिये इस पूरे क्षेत्र के घर-घर में चर्चा का विषय थीं। आज भी 50 वर्ष की उम्र पार कर चुका कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति पंकज-गोष्ठी से संबंधित किसी न किसी प्रकार की स्मृति के साथ जीता है जो पुन: पंकज जी के अतुलनीय व्यक्तित्व का ही प्रमाण है। पंकज-गोष्ठी की स्थापना के साथ ही इस पूरे क्षेत्र में साहित्य-सर्जना के साधक मनिषियों की बाढ़ सी आ गई और कई बड़े लेखक, नाटककार तथा कवि हिन्दी साहित्य के पटल पर उभरे। “पंकज” शब्द अब “व्यक्ति-बोधक” मात्र न रहकर “संस्था-बोधक” बन गया और पंकज जी तथा पंकज-गोष्ठी एक-दूसरे में विलीन हो गये। इसका मूल्यांकन भी पंकज जी जैसे सहृदय साधक-साहित्यकार ही कर सकते है।
एक और रोमांचक घटना, जिसका चश्मदीद गवाह इस लेख का लेखक भी है, को हिन्दी जगत के सामने लाना चाहता हूं। बात 68-69 के किसी वर्ष की है– ठीक से वर्ष याद नहीं आ रहा। दुमका में कलेक्टरेट क्लब द्वारा आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में रवीन्द्र साहित्य के अधिकारी विद्वान डॉ० हंस कुमार तिवारी मुख्य अतिथि थे। संगोष्ठी की अध्यक्षता पंकज जी कर रहे थे। कवीन्द्र रवीन्द्र से संबंधित डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को उपस्थित विद्वत् समुदाय ने धैर्यपूर्वक सुना। संभाषण समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर का दौर चला। इसमें भी तिवारी जी ने प्रेमपूर्वक श्रोताओं की शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि संताल परगना बंगाल से सटा हुआ है और बंगला यहां के बड़े क्षेत्र में बोली जाती है। इसलिये बंगला साहित्य के प्रति यहां के निवासियों में अभिरूचि जन्मजात है। चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, बामा खेपा, पगला बाबा, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्र नाथ ठाकुर तथा शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय समेत सैकड़ों महानुभावों को इस क्षेत्र के लोग उसी तरह से अपना मानते है जैसे बंगाल के लोग। यहां के महान भक्त-कवि भवप्रीतानंद ओझा की सारी रचनाएं बंगला में ही है। अत: यहां के विद्वत् समुदाय ने तिवारी जी पर रवीन्द्र-साहित्य से संबंधित प्रश्नों की बौछार की थी, जिनका यथासंभव उत्तर प्रेम और आदर के साथ तिवारी जी ने दिया था। इसके बाद अध्यक्षीय भाषण शुरू हुआ, जिसमें पंकज जी ने बड़ी विनम्रता, परंतु दृढ़तापूर्वक रवीन्द्र साहित्य से धाराप्रवाह उद्धरण-दर-उद्धरण देकर अपनी सम्मोहक और ओजमयी भाषा में डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को नकारते हुए अपनी नवीन प्रस्थापना प्रस्तुत की। पंकज जी के इस सम्मोहक, परंतु गंभीर अध्ययन को प्रदर्शित करने वाले भाषण से उपस्थित विद्वत् समाज तो मंत्रमुग्ध और विस्मृत था ही, स्वयं डॉ० तिवारी भी अचंभित और भावविभोर थे। पंकज जी के संभाषण की समाप्ति के बाद अभिभूत डॉ० तिवारी ने दुमका की उस संगोष्ठी में सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि रवीन्द्र-साहित्य का उस युग का सबसे गूढ़ और महान अध्येता पंकज जी ही है। इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह मेरे अतिरिक्त सैकड़ों लोग आज भी दुमका शहर में मौजूद है। ऐसे व्यक्तित्व और प्रतिभा के मालिक पंकज जी अगर दंत-कथाओं के नायक बनते चले गये तो इसमें आश्चर्य किस बात का!
ये दो प्रकरण पंकज जी की प्रकांड विद्वत्ता और असाधाराण ज्ञान की झलक प्रस्तुत करने के दो छोटे-छोटे प्रसंग मात्र है। लेकिन अगर पंकज जी मात्र विद्वान ही होते तो शायद महान नहीं होते। वे तो गांधी के स़च्चे शिष्य के रूप में ’श्रम’ की गरिमा को सर्वाधिक महत्व देने वाले सच्चे कर्म-योगी थे। शारिरिक श्रम का अद्भुत उदाहरण भी उन्होंने अपने कर्म-शंकुल जीवन में पेश किया है। इस क्षेत्र के लोग आमतौर पर पंकज जी के जीवन के उस दौर की कहानी से परिचित तो है ही जब उन्होंने आजीविका हेतु अपनी किशोरावस्था में अखबार बांटने वाले हॉकर का भी काम किया था। बल्कि एक बार तो “चार आने” की पगार हेतु वे म्युनिसिपैलिटी में झाड़ू लगाने की नौकरी के लिये भी अभ्यर्थी बने थे, यह बात अलग है कि जन्मना ब्राह्मण होने के चलते उन्हें यह नौकरी नहीं मिली थी। जरा दिमाग पर जोर डालिये। 1930 के दशक की यह बात है। बैद्यनाथधाम देवघर, कर्मकांडी ब्राह्मणों और पंडों का गढ़। वहां कुलीन मैथिल ब्राह्मण, ऐतिहासिक घाटवाल घराने का बालक अगर ऐसा क्रांतिकारी व्यक्तित्व का विकास कर रहा हो तो निश्चय ही यह असाधाराण बात थी। संभवत: गांधी के साहचर्य और सेवा ने उन्हें अंदर से एकदम बदल दिया होगा, तभी तो तत्कालीन कट्टरपंथी सामाजिक दौर में भी उन्होंने ऐसा आत्मबल दिखाया था, जिसमें शारिरिक श्रम की गरिमा की प्रतिष्ठापना की सुगंध थी।
शारिरिक श्रम की गरिमा को उच्च धरातल पर स्थापित करने का एक अन्य सुन्दर उदाहारण पंकज जी ने पेश किया है। 1968 में उन्हें मधुमेह (डायबिटीज) हो गया। उन दिनों मधुमेह बहुत बड़ी बीमारी थी। गिने-चुने लोग ही इस बीमारी से लड़कर जीवन-रक्षा करने में सफल हो पाते थे। चिकित्सक ने पंकज जी को एक रामवाण दिया — अधिक से अधिक पसीना बहाओ। फिर क्या था! पंकज जी ने वह कर दिखाया, जिसका दूसरा उदाहरण साहित्यकारों की पूरी विरादरी में शायद अन्यत्र है ही नहीं। संताल परगना की सख्त, पथरीली और ऊबड़-खाबड़ जमीन। पंकज जी ने कुदाल उठाई और इस पथरीली जमीन को खोदना शुरु कर दिया। छ: महीने तक पत्थरों को तोड़ते रहें, बंजर मिट्टी काटते रहे और देखते ही देखते पथरीली ऊबड़-खाबड़ परती बंजर जमीन पर दो बीघे का खेत बना डाला। हां, पंकज जी ने– अकेले पंकज जी ने कुदाल-फावड़े को अपने हाथों से चलाकर, पत्थर काटकर दो बीघे का खेत बना डाला। खैरबनी गांव में उनके द्वारा बनाया गया यह खेत आज भी पंकज जी की अदम्य जीजीविषा और अतुलनीय पराक्रम की गाथा सुना रहा है। क्या किसी और साहित्यकार या विद्वान ने इस तरह के पराक्रम का परिचय दिया है?
पिछले दिनों अदम्य पराक्रम का अद्भुत उदाहरण बिहार के दशरथ मांझी ने तब रखा जब उन्होंने अकेले पहाड़ काटकर राजमार्ग बना दिया। आदिवासी दशरथ मांझी तक पंकज जी की कहानी पहुंची थी या नहीं हमें यह नहीं मालूम, परन्तु हम इतना जरूर जानते है कि पंकज जी या दशरथ मांझी जैसे महावीरों ने ही मानव जाति को सतत प्रगति-पथ पर अग्रसर किया है। युगों-युगों तक ऐसे महामानव हम सब की प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे। क्या उनकी इन पंक्तियों में भी इसी पराक्रम का संकेत नहीं मिलता है :–
बंधु लौह वह बन जा जिससे
भिड़कर चट्टानें भी टूटें
मरु में भी जीवन-मय निर्झर
तेरे चरण--चिन्ह से फूटें
कर्तव्य-परायणता और पंकज जी एक दूसरे के पर्याय थे। इसकी भी एक झलक प्रस्तुत करना चाहता हूं। बात उन दिनों की है जब पंकज जी बामनगामा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक थे। अपने गांव से ही आना जाना करते थे। दोनों गांवों के बीच अजय नदी है। उन दिनों अजय नदी पर पुल नहीं था। परिणामत: बरसात के मौसम में नदी के दोनों किनारे के गांव एकदम अलग-अलग हो जाते थे। सम्पर्क से पूरी तरह कट जाते थे। पहाड़ी नदियों की बाढ़ की भयावहता तो सर्वविदित ही है। उसमें भी अजय नदी के बाढ़ की विकरालता तो गांव के गांव उजाड़ देती थी। जान-माल की कौन कहें, सैकड़ों मवेशी तक बह जाते थे। लेकिन वाह री पंकज जी की कर्तव्यनिष्ठा — बारिश के महिने में विनाशलीला का पर्याय बन चुकी अजय नदी को तैरकर अध्यापन हेतु पंकज जी स्कूल आते-जाते थे। एक बर्ष ऐसी भयंकर बाढ़ आयी कि मवेशी तक बहने लगे। जिस बाढ़ ने भैस जैसी मवेशी को बहा लिया उस बाढ़ को पंकज जी ने हरा दिया। स्कूल से लौटते वक्त उन्होंने उफनती नदी में छलांग लगाई और तैरते हुए वे भैस तक पहुंच गये। भैस की पुंछ पकड़ी और अपने साथ भैस को भी बाढ़ से बाहर निकाल दिया। भैस लेकर घर चले आये। इस अद्भुत प्रसंग का सहभागी बनने और उस भैस को देखने हेतु आस-पास के कई गांवों के सैकड़ों लोग पंकज जी के घर पहुंच गये। उनकी बहादुरी और जानवरों के प्रति करुणा की कहानी को सुनकर सबों ने दांतों तले अंगुली दबा ली। लेकिन पंकज जी के लिये तो यह रोजमर्रा का काम था। वे नदी के किनारे पहुंचकर एक लंगोट धारण किये हुए, बाकि सभी कपड़ों को एक हाथ में उठाकर, पानी से बचाते हुए, दूसरे हाथ से तैरकर नदी को पार करते थे। कुचालें मारती हुई अजय नदी की बाढ़ एक हाथ से तैरकर पार करने वाला यह अद्भुत व्यक्ति अध्यापन हेतु बिला-नागा स्कूल पहुंचता था। क्या कहेंगे इसे आप! शिष्यों के प्रति जिम्मेदारी, कर्तव्य परायणता या जीवन मूल्यों की ईमानदारी। “गोविन्द के पहले गुरु” की वन्दना करने की संस्कृति अगर हमारे देश में थी तो निश्चय ही पंकज जी जैसे गुरुओं के कारण ही। ऐसी बेमिसाल कर्तव्यपरायणता, साहस और खतरों से खेलने वाले व्यक्तित्व ने ही पंकज जी को महान बनाया था, जिनकी गाथाओं के स्मरण मात्र से रोमांच होने लगता है, तन-बदन में सिहरन की झुरझुरी दौड़ने लगती है।
पंकज जी एक तरफ तो खुली किताब थे, शिशु की तरह निर्मल उनका हृदय था, जिसे कोई भी पढ़, देख और महसूस कर सकता था। दूसरी तरफ उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था और उनका कर्म-शंकुल जीवन इतना परिघटनापूर्ण था कि वे अनबूझ पहेली और रहस्य भी थे। निरंतर आपदाओं को चुनौती देकर संघर्षरत रहनेवाले पंकज जी के जीवन की कुछ ऐसी घटनाएं जिसे आज का तर्किक मन स्वीकार नहीं करना चाहता है, लेकिन उनसे भी पंकज जी के अनूठे व्यक्तित्व की झलक मिलती है। 1946-47 की घटना है, पंकज जी हिन्दी विद्यापीठ समेत कई विद्यालयों में पढा़ते हुए 1945 में मैट्रिक पास करते है। तदुपरांत इंटरमीडिएट की पढा़ई के लिये टी० एन० जे० कॉलेज, भागलपुर में दाखिला लेते है। रहने की समस्या आती है। छात्रावास का खर्च उठाना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने शिक्षक ’परमेश’ की पंक्तियों से प्रेरणा मिलती है — –
गुलगुले पर्यंक पर हम लेट क्या सुख पाएंगे
भूमि पर कुश की चटाई को बिछा सो जाएंगे।
एक छोटी सी दियरी से जब रोशनी का काम हो
क्या करेंगे लैम्प ले जब एक ही परिणाम हो।
पंकज जी उहापोह की स्थिति से उबरते हुए विश्वविद्यालय के पीछे टी एन बी कालेज और परवत्ती के बीच स्थित पुराने ईसाई कब्रिस्तान की एक झोपड़ी में पहुंचते है। वहां एक बूढ़ा चौकीदार मिलता है। उस वीराने में अकेला मनुष्य। चारों ओर कब्र ही कब्र। भांति-भांति के कब्र। मिट्टी के कब्र, सीमेंट के कब्र, पत्थर के कब्र और संगमरमर के कब्र, बड़ी कब्र और छोटी कब्र भी। कब्रों के नीचे दफन लाश। वहां अकेला चौकीदार। पंकज जी और चौकीदार में बातें होती है और पंकज जी को उस कब्रिस्तान में आश्रय मिल जाता है…. दिन भर की जद्दोजहद के बाद रात गुजाराने का आश्रय। पहली रात है — अंदर से मन में भय का कंपन्न होता है, लेकिन चौकीदार की उपस्थिति से मन आश्वस्त होता है और मुर्दों के बीच पंकज जी की रात गुजर जाती है। सुबह की लाली रात की भयावहता को परे ढकेल देती है। फिर दिनभर की भागदौड़ और रात्रि विश्राम हेतु बूढ़े चौकीदार की वही झोपड़ी। लेकिन यह क्या आज चौकीदार नहीं दिख रहा। शायद कहीं गया होगा, सोचकर पंकज जी सो जाते है। रातभर गहरी नींद में रहते है, दिन भर फिर अपनी दैनिकी में व्यस्त। रात फिर उसी झोपड़ी में कटती है, लेकिन चौकीदार कहीं नहीं है। कहां गया वह चौकीदार? क्या वह सचमुच चौकीदार था या कोई भूत जिसने पंकज जी को उस परदेश में आश्रय दिया था? लोगों का मानना है कि वह भूत था ; सच चाहे कुछ भी हो लेकिन कब्रिस्तान में अकेले रहकर पढाई करने का कोई उदाहरण और भी है क्या?
1954 में पंकज जी दुमका आ जाते है। उनके चाहने वाले उन्हें अपने साथ रखते है, लेकिन पंकज जी किसी के घर अधिक दिनों तक रहना नहीं चाहते। अकेले उस छोटे से शहर में मकान ढूंढने लगते है। उस समय का दुमका आज का दुमका नहीं है। गांधी मैदान, बगल में लगने वाली साप्ताहिक हाट और जिला परिषद कार्यालय से टीनबाजार तक जाती हुई कोलतार की पतली सड़क। सड़क के इर्द-गिर्द चाय पान और रोजमर्रा के काम की दो-चार दुकाने। बीच में दुमका बस-स्टैंड — बस यहीं था दुमका। अंग्रेजों ने शहर से दूर रहने के लिये कुछ कोठियां बनवाई थी, जो खाली पड़ी हुई थी। कोठियों के आस-पास बस ड्राईवर और मजदूरों ने अड्डा जमा रखा था। खूंटा बांध के पीछे की एक कोठी पंकज जी को पसंद आ गई। लोगों का मानना था कि वहां भूत रहते थे। कहा तो यहां तक जाता था कि भूतों के डर से अंग्रेजी फौज भी वहां से भागकर चली गयी थी। लेकिन धुन के धनी पंकज जी को भला भूतों से क्या डर था। पहले भी तो वे भूतों के साथ भागलपुर में रह ही चुके थे। अत: पंकज जी ने उस भुताहा कोठी को ही अपना आवास बना लिया। लोगों का कहना हैं कि भूत ने पंकज जी को परेशान करना शुरू कर दिया। पवित्र चरित्र और वजनदार आसन के कारण भूत ने इन्हें कभी प्रत्यक्ष दर्शन तो नहीं दिया, परन्तु कभी खुन, तो कभी हड्डियों को बिखेरकर इनकों डराने की कोशिश की। भूतों के इस उत्पात को पंकज जी ने चुनौती के रूप में लिया और आंगन में खड़े अनार का पेड़, जिसपर भूत का बसेरा माना जाता था को कटवाने का निश्चय कर लिया। मजदूरों को पेड़ काटने का आदेश दिया, परंतु किसी मजदूर ने हिम्मत नहीं दिखाई। अंत में खुद ही पेड़ काटने का निश्चय करके पंकज जी ने टीनबाजार से एक कुल्हाड़ी खरीदी। भूत परेशान हो गया और रात में कातर होकर पंकज जी के सामने गिड़गिड़ाने लगा कि मेरा बसेरा मत उजाड़ो। पंकज जी ने भी कहा कि मुझे तंग करना छोड़ दो। दोनों में समझौता हुआ कि जबतक अन्यत्र कोई अच्छी जगह नहीं मिल जाती, पंकज जी वहीं रहेंगे। जगह मिलते ही कोठी छोड़ देंगे। तबतक उन्हें तंग नहीं किया जाएगा। बदले में पंकज जी को भी अनार का पेड़ नहीं काटने का आश्वासन देना पड़ा। और इस तरह पंकज जी और भूत मित्र हो गये, एक-दूसरे के सहवासी हो गये। पंकज जी ने भूत के कार्यों में खलल नहीं डाली और भूत ने पंकज जी को अनजानी जगह में एक बार फिर पांव पसारने में मदद की। पंकज जी की भूत के साथ मित्रता की ये दो कहानियां भी जमाने के लिये उदाहरण बन गयी। लोगों ने पढा-सुना था कि लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास को भूत ने सफलता दिलाई थी, यहां भी लोगों ने जाना सुना कि पंकज जी दूसरे लोकनायक थे, जिनकी बहुविध सफलता में भूतों की भी थोड़ी भूमिका थी।
पंकज जी के व्यक्तित्व के साथ इतनी परिघटनाएं गुम्फित है कि पंकज जी का व्यक्तित्व रहस्यमय लगने लगता है। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के हर पहलू में चमत्कार ही चमत्कार बसा हुआ है। इन्हीं कथानकों ने पंकज जी की अक्षय कीर्ति को “ज्यों-ज्यों बूढ़े स्याम-रंग” की तर्ज पर अधिकाधिक ’उज्वल’ बना दिया है। इसलिये पंकज जी को कवि, एकांकीकार, समीक्षक, नाटककार, रंगकर्मी, संगठनकर्ता, स्वाधीनता सेनानी जैसे अलग-अलग खांचों में डालकर– उनका सम्यक् मूल्यांकन नहीं किया जा सकता हैं। इसीलिये तो 30 जून 2009 में दुमका में सम्पन्न “आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज 90वीं जयन्ती समारोह” में जहां डॉ० प्रमोदिनी हांसदा उन्हें वीर सिद्दो-कान्हों की परंपरा में संताल परगना का महान सपूत घोषित करती हैं, वहीं प्रो० सत्यधन मिश्र जैसे वयोवृद्ध शिक्षाविद् पंकज जी को महामानव मान लेते है। एक ओर जहां आर. के. नीरद जैसे साहित्यकार-पत्रकार पंकज जी को “स्वयं में संस्थागत स्वरूप थे पंकज” कहकर विश्लेषित करते है, वहीं दूसरी ओर राजकुमार हिम्मतसिंहका जैसे विचारक-लेखक पंकज जी को महान संत-साहित्यकार की उपाधि से विभूषित करते है, लेकिन फिर भी पंकज जी का वर्णन पूरा नहीं हो पाता। ऐसा क्यों है? वास्तव में पंकज जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में एक अलौकिक चमत्कार का सम्मोहन था, मानो पंकज जी वशीकरण के सिद्ध पुरूष हो। जिन्होंने भी उन्हें देखा, पंकज जी उनकी आंखों में सदा-सर्वदा के लिये बस गये। जिन्होंने भी उन्हें सुना, वे आजीवन पंकज जी के मुरीद बन गये। लंबा और डील-डौल युक्त कद-काठी, तना हुआ सीना, अधगंजे सिर के नीचे दमकता हुआ ललाट…फ़िर घने भ्रूरेखों से आच्छादित करूणामय नेह-पूरित सरस नेत्र-द्वय… नासिका के ठीक नीचे चिरहासमय अधरोष्ठ… दैदीप्यमान मुखमंडल… रेखाओं से भरा ग्रीवाक्षेत्र और फिर खादी का स्वेत धोती-कुर्ता का परिधान… पांव में बाटा की चप्पल और इन सबके पीछे छिपा कठोर साधना, दृढ़ सिद्धांत, सुस्पष्ट जीवन-दर्शन तथा अतुलनीय चरित्र के स्वामी पंकज जी का प्रखर व्यक्तित्व।परन्तु, वास्तव में महामानव दिखने वाले पंकज जी भी हाड़-मांस के पुतले में ही थे।
इस लेख में पंकज जी के जीवन से सम्बन्धित सच्ची घटनाओं के आधार पर ही उनका रेखा-चित्र खींचने का प्रयास किया गया है। इसमें कुछ ऐसे प्रसंग भी है, विशेष कर भूतों से इनकी मित्रता के प्रसंग, जिन्हें 21वीं सदी का तार्किक मन सहज ही स्वीकार नहीं कर सकता है। लेकिन लोग इन विवरणों के आधार पर चाहे जो भी निष्कर्ष निकाले, मेरे जैसे लोगों के लिये तो यह बात अधिक महत्वपूर्ण है कि इस बात की पड़ताल हो कि पंकज जी का व्यक्तित्व आखिर क्या था? क्या था समाज को पंकज जी का योगदान? क्या है उनका इतिहास में स्थान? क्यों उनके आस-पास इतनी कहानियां गढ़ी गयी है? आखिर उनके चमत्कार का रहस्य दिनों-दिन क्यों गहराते जा रहा है और वे अनुश्रुति तथा दंतकथाओं में समाते जा रहे है? क्या उपेक्षा के पत्थर तले दबाए गये संताल परगना की विभूतियों का वृतांत्त सिर्फ कथानकों और जनश्रुतियों में ही उलझा रहेगा या इतिहास और साहित्य के विद्यार्थी की शोधपूर्ण दृष्टि इन महानुभावों पर भी पड़ेगी और रहस्य के आवरण से बाहर निकालकर इनका सम्यक् मूल्यांकन होगा? महेश नारायण से लेकर पंकज जी तक की तीन पीढ़ियों के महान रचनाकारों की आत्मा आज भी ऐसे शोधार्थी और समीक्षक की प्रतिक्षा कर रही है जो इनके योगदानों को रहस्य के आवरण से मुक्त करके बृहत्तर हिन्दी जगत में इनका समुचित स्थान निरूपित कर सकें।
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