इक्कीसवीं सदी में महाशक्ति में शुमार होने के लिए आतुर हिन्दोस्तां के कर्णधारों ने कमसे कम यह उम्मीद नहीं की होगी कि वह एक ऐसे ढेर पर बैठे मिलेंगे जिसमें एक बड़ी त्रासदी के बीज छिपे होंगे।
यूनिसेफ-विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताजी रिपोर्ट (Saddest stink in the world, TheTelegraph, 16 Oct 2009) इस बात का विधिवत खुलासा करती है कि किस तरह दुनिया भर में खुले में शौच करनेवाले लोगों की 120 करोड़ की संख्या में 66.5 करोड़ की संख्या के साथ हिन्दोस्तां ‘अव्वल नम्बर’ पर है। प्रस्तुत रिपोर्ट अनकहे हिन्दोस्तां की हुकूमत द्वारा अपने लिए निर्धारित इस लक्ष्य की लगभग असम्भव्यता की तरफ इशारा करती है कि वह वर्ष 2012 तक खुले में शौच की प्रथा को समाप्त करना चाहती है। लोगों को याद होगा कि अप्रैल 2007 में यूपीए सरकार के प्रथम संस्करण में ही ग्रामीण विकास मंत्रालय ने यह ऐलान किया था कि हर घर तक टायलेट पहुंचा कर वह पूर्ण सैनिटेशन के लक्ष्य को 2012 तक हासिल करेगी।
अपने पड़ोसी देशों के साथ भी तुलना करें तो हिन्दोस्तां की हालत और ख़राब दिखती है। वर्ष 2001 में संयुक्त राष्ट्रसंघ के विकास कार्यक्रम के तहत मानवविकास सूचकांक की रिपोर्ट ने इस पर बखूबी रौशनी डाली थी। अगर स्थूल आंकड़ों के हिसाब से देखें तो हिन्दोस्तां में 1990 में जहां 16 फीसदी आबादी तक सैनिटेशन की व्यवस्था थी वहीं 2000 आते आते यह आंकड़ा आबादी के महज 28 फीसदी तक ही पहुंच सका था। पाकिस्तान, बांगलादेश और श्रीलंका जैसे अपने पड़ोसियों के साथ तुलना करें तो यह आंकड़ें थे 36 फीसदी से 62 फीसदी तक ; 41 फीसदी से 48 फीसदी तक तथा 85 फीसदी से 94 फीसदी तक।
यह अकारण नहीं मलविसर्जन/सैनिटेशन की ख़राब व्यवस्था, पीने के अशुद्ध पानी, और हाथों के सही ढंग से न धो पाने से अधिक गम्भीर शक्ल धारण करने वाली दस्त/डायरिया जैसी बीमारी से हर साल दुनिया भर में मरनेवाले 15 लाख बच्चों में से तीन लाख 60 हजार भारत के होते हैं। (विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की एक अन्य ताजा रिपोर्ट से)
कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि खुले में मलविसर्जन में भारत को हासिल ‘अव्वल’ नम्बर क्या अत्यधिक आबादी के चलते है ? भारत से अधिक आबादी वाले चीन के साथ तुलना कर हम इसे जान सकते हैं। मालूम हो कि यूनिसेफ-विश्व स्वास्थ्य संगठन की वही रिपोर्ट बताती है कि खुले में मलविसर्जन करनेवालों की तादाद चीन में है महज 3 करोड 70 लाख है और दस्त/डायरिया से मरनेवाले बच्चों की संख्या है चालीस हजार।
सैनिटेशन जिसे पिछले दिनों एक आनलाइन पोल में विगत डेढ़ सौ से अधिक साल के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सकीय प्रगति कहा गया था, उसके बारे में हमारे जैसे मुल्क की गहरी उपेक्षा क्यों ? दिलचस्प है कि उपरोक्त मतसंग्रह में 11 हजार लोगों की राय ली गयी थी, जिसने एण्टीबायोटिक्स, डीएनए संरचना और मौखिल पुनर्जलीकरण तकनीक (ओरल रिहायडेªशन थेरेपी) आदि सभी को सैनिटेशन की तुलना में कम वोट मिले थे। (टाईम्स न्यूज नेटवर्क, 22 जनवरी 2007)।
क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि दरअसल सैनिटेशन की सुविधा महज एक चैथाई आबादी तक पहुंचने का कारण भारतीय समाज में जड़मूल वर्णमानसिकता है, जिसके चलते प्रबुद्ध समुदाय भी इसके बारे में मौन अख्तियार किए हुए हैं। इसका एक प्रतिबिम्बन आज भी बेधड़क जारी सर पर मैला ढोने की प्रथा में मिलता है, जिसमें लगभग आठ लाख लोग आज भी मुब्तिला हैं जिनमें 95 फीसदी महिलाएं हैं और जो लगभग स्वच्छकार समुदाय कही जानेवाली वाल्मीकि, चूहड़ा, मुसल्ली आदि जातियों से ही आते हैं। और यह स्थिति तब जबकि वर्श 1993 में ही इस देश की संसद ने एक कानून पूर्ण बहुमत से पारित करवाया था जिसके अन्तर्गत मैला ढोने की प्रथा को गैरकानूनी घोषित करवाया है अर्थात इसमें शामिल लोगों को या काम करवानेवालों को दण्ड दिया जा सकता है। आखिर कितने सौ करोड़ रूपयों की आवश्यकता होगी ताकि आबादी के इस हिस्से को इस अमानवीय, गरिमाविहीन काम से मुक्ति दिलायी जाए।
दरअसल शहर में सैनिटेशन एवम सीवेज की आपराधिक उपेक्षा की जड़ें हिन्दु समाज में मल और ‘प्रदूषण’ के अन्तर्सम्बन्ध में तलाशी जा सकती हैं, जो खुद जाति विभेद से जुड़ा मामला है। सभी जानते हैं कि मानव मल तमाम रोगों के सम्प्रेषण का माध्यम है। जाहिर है मानव मल के निपटारे के उचित इन्तज़ाम होने चाहिए। दूसरी तरफ भारत की आबादी के बड़े हिस्से में मल को अशुद्ध समझा जाता है और उसकी वजह से उससे बचने के उपाय ढूंढे जाते हैं। मलविसर्जन के बाद नहाना एक ऐसाही उपाय है। वर्णसमाज में तमाम माता-पिता अपनी सन्तानों को यही शिक्षा देते हैं कि वे मलविसर्जन के बाद ही नहाएं। और चंूकि मल से बचना मुश्किल है इसलिए इस ‘समस्या’ का निदान ‘छूआछूत’ वाली जातियों में ढंूढ लिया गया है जो हाथ से मल को हटा देंगी। कुल मिला कर देखें तो मैला हटाने से लेकर सैनिटेषन की कमी का खामियाजा भुगतने का काम चन्द दलित जातियों को ही झेलना पड़ता है, इसलिए शेष प्रबुद्ध समुदाय को इनकी कमी का कोई खामियाजा भुगतना नहीं पड़ता और समय बदलने के बाद भी यथास्थिति बनी रहती है।
एक तरह से कह सकते हैं कि सैनिटेशन की कमी के चलते अचानक हैजा या ऐसी ही अन्य बीमारियों की जकड़ में तमाम लोग आ सकते हैं। इसकी वजह यह है कि भारत में इस कमी को दूर करने के नाम पर लोग खुली नालियों को टायलेटों के रूप में इस्तेमाल करते हैं। और सिर्फ शहर की ही बात करें तो सभी शहरों में एकत्रित जल-मल का 70 फीसदी हिस्सा ठीक से डिस्पोजल न होने के कारण रिस-रिस कर नीचे पहुंचता है और जमीनी पानी को उल्टे प्रदूषित कर रहा है।
सैनिटेशन के मामले में आधुनिक भारत की दुर्दशा के बरअक्स मोहनजोदारो एवं हरप्पा संस्कृतियों अर्थात सिन्धु घाटी की सभ्यता का अनुभव दिखता है। सभी जानते हैं सिंधु घाटी के तमाम शहर उस दौर में शहर नियोजन प्रणाली का उत्कृष्ट नमूना थे। इनमें सबसे अधिक सराही जाती रही है यहां मौजूद भूमिगत डेªनेज (निकासी) प्रणाली। एक अन्य विशिष्टता रही है कि आम लोगों के घरों में भी स्नानगृहों का इन्तज़ाम था और ऐसे निकासी के इन्तज़ाम थे जिसके तहत घर का तमाम अवशिष्ट एवं गन्दा पानी नीचे अवस्थित भूमिगत जारों में पहुंचाया जाता था।
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि उस सभ्यता में आज से लगभग पांच हजार साल पहले आम आदमी को केन्द्र में रख कर जल-मल निकासी और सार्वजनिक स्वास्थ्य की योजना को वरीयता मिली थी, वहीं आज हम बहुत विपरीत स्थिति पा रहे हैं।
सुभाष गाताडे,
एच 4 पुसा अपार्टमेण्ट, रोहिणी सैक्टर 15, दिल्ली 110089
सैनिटेषन की कमी हमारे अन्दर ही है हम दुसरो को क्यो दोष दे ।
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