नामवर सिंह निर्विवाद सबसे बड़े आलोचक हैं। लेकिन आलोचना में मुक्तिबोध की छाया का भी स्पर्श क्यों नहीं कर पाए ? मुक्तिबोध ने आलोचना को जिस जमीन पर ले जाकर छोड़ा था उसके आगे क्यों नहीं ले जा पाए ? क्या नामवर सिंह जैसे समर्थ आलोचक से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे मुक्तिबोध की जमीन से आगे जाएं और आलोचना का विकास करें। नामवरजी बहुत बड़े आलोवक हैं लेकिन मुक्तिबोध के संदर्भ में उन्होंने वे सावधानियां क्यों नहीं बरतीं जिनके बारे में मुक्तिबोध ने प्रगतिशील आलोचना को सावधान किया था । जाहिर है मुक्तिबोध की बतायी सावधानी हटी और आलोचनात्मक दुर्घटना घटी और हिन्दी आलोचना की सबसे बड़ी दुर्घटना है 'कविता के नए प्रतिमान'।
सबसे पहले नामवर जी के मुक्तिबोध के प्रति खंडित रवैयये पर गौर करें। मुक्तिबोध को 'कविता के नये प्रतिमान' में न्यूनतम स्पेस दिया गया है। मुक्तिबोध की समग्र रचनाशीलता पर नहीं सिर्फ एक कविता के कुछ आयामों पर ही विचार किया गया है। मुक्तिबोध ने प्रगतिशील समीक्षा के बारे में जो बातें कही थीं, वे नामवरजी पर भी घटती हैं, मसलन् मुक्तिबोध ने लिखा है '' क्या आपने वास्तविक काव्य-कृतियों को उनकी समग्रता में लेकर किसी कवि -विशेष का सर्वांगीण अध्ययन प्रस्तुत किया ? '' जाहिर है यह काम नामवरजी ने कम से कम नहीं किया।
मुक्तिबोध का आलोचना या साहित्य में सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने पूंजीवाद को प्रधान एजेण्डा बनाया। मुक्तिबोध की शक्ति वहीं पर चमक के साथ महसूस होती है जहॉं पर वे पूंजीवाद की सबसे तीखी आलोचना करते हैं। आलोचना से लेकर कविता तक पूंजीवाद की निर्मम आलोचना और यह आलोचना भी वर्गीय हितों को केन्द्र में रखकर की गई है। क्या हिन्दी का कोई भी आलोचक वैसी निर्मम आलोचना कर पाया है ?
हमें इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि 'कविता के नए प्रतिमान' में किस तरह के प्रतिमानों की चर्चा की गई है ,क्या नामवरजी कोई समाजवादी काव्य प्रतिमान खोज पाए ? क्या कोई ऐसा प्रतिमान स्थिर कर पाए जिससे पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष में रचना और आलोचना का अस्त्र बनाया जा सके ? वे जिन प्रतिमानों की चर्चा करते हैं वे पूंजीवाद का तिलिस्म नहीं तोड़ पाते। उलटे कल्याणकारी राज्य के साथ कदमताल मिलाते नजर आते हैं ।
जिन लेखकों,कवियों और आलोचकों के बारे में विस्तार के साथ विमर्श में नामवरजी उलझे रहे हैं उनमें से अधिकतर आज कहॉं पर हैं ? हिन्दी में उनकी क्या कोई परंपरा है ? ऐसा क्यों हुआ कि मुक्तिबोध हिन्दी के नए साहित्यकारों के प्रतीकपुरूष बन गए और बाकी सिर्फ कवि,आलोचक,लेखक मात्र होकर रह गए।
हिन्दी में अपनी परंपरा प्रेमचंद ने बनायी थी या बाद में मुक्तिबोध ने बनायी । दोनों के यहॉं पूंजीवाद सबसे बड़ा एजेण्डा है, प्रेमचंद ने किसान और मध्यवर्ग की तबाही को चित्रित करके मनुष्य की खोज की थी। ठीक अपने तरीके से मुक्तिबोध ने मध्यवर्ग और मजदूरवर्ग की पूंजीवाद के द्वारा मचायी गयी तबाही को नंगा किया और मनुष्य की सत्ता को प्रतिष्ठित किया। पूंजीवाद के प्रति अविचल सिद्धान्तनिष्ठ संघर्ष चलाने के कारण ही ये दोनों हिन्दी के महान् लेखक बने हुए हैं।
अस्मिता विमर्श मूलत: पूंजीवादी विमर्श है । क्या अस्मिता विमर्श अस्मिता,जाित,धर्म,भाषा,नस्ल,गोत्र ,वर्ग आदि के आधार पर तय होगा या नजरिए के आधार तय होगा ? बतर्ज नामवरजी आधुनिक मानव की ज्वलंत समस्या अस्मिता या 'आइडेंटिटी' की है। क्या मुक्तिबोध की अस्मिता खोज का प्रकल्प वही है जो बुर्जुआजी का है ? क्या मार्क्सवाद में अस्मिता विमर्श है ? मार्क्सवादी वर्गदृष्टि का अस्मिता के साथ तीन तेरह का रिश्ता है। विचारणीय सवाल यह है कि मुक्तिबोध अपनी कविता और आलोचना में अस्मिता को नष्ट करते हैं या निर्मित करते हैं ? थोड़ी देर के लिए नामवरजी की बात मान लें और विचार करें कि मुक्तिबोध की अस्मिता क्या है ,पहले देखें नामवरजी क्या कहते हैं ।
नामवरजी का मानना है '' 'अँधेरे में' कविता की ये अन्तिम पंक्तियॉं उस अस्मिता या'आइडेंटिटी' की ओर संकेत करती हैं, जो आधुनिक मानव की सबसे बड़ी समस्या है। निस्सन्देह इस कविता का मूल कथ्य है अस्मिता की खोज; किन्तु कुछ अन्य व्यक्तिवादी कवियों की तरह इस खोज में किसी प्रकार की आध्यात्मिकता या रहस्यवाद नहीं , बल्कि गली-सड़क की गतिविधि,राजनीतिक परिस्थिति और अनेक मानव-चरित्रों की आत्मा के इतिहास का वास्तविक परिवेश है। '' नामवरजी की सारी समस्या की जड़ उपरोक्त समझ में है।
अस्मिता कोई वायवीय अथवा वातावरण की चीज नहीं है जिसे गली,सड़क वातावरण में खोजें। अस्मिता वातावरण ,नाटकीयता, मैं और तुम में नहीं बल्कि ठोस सामाजिक इकाईयों में निवास करती है। वह 'मैं' और 'वह' में वर्गीकृत होकर व्यक्त नहीं होती। नामवरजी ने 'कविता के नए प्रतिमान' में 'अँधेरे में ' कविता की जो आलोचना और व्याख्या लिखी है, वह अपनी जगह सही हो सकती है, मुक्तिबोध को देखने का यह उनका नजरिया है और इसे व्यक्त करना उनका लोकतांत्रिक हक है। लेकिन अस्मिता का अवधारणात्मक विभ्रम पैदा करने की जो उन्होंने कोशिश की है वह किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं है। नामवर जी का मानना है '' कवि मुक्तिबोध के लिए अस्मिता की खोज व्यक्ति की खोज नहीं अभिव्यक्ति की खोज है।एक कवि के नाते उनके लिए परम अभिव्यक्ति ही अस्मिता है। भाषा स्वभावत: इस अभिव्यक्ति का आधार है।''
सवाल उठता है मुक्तिबोध की भाषा कौन सी है मराठी या हिन्दी ? क्या उनके पास दो भाषाओं की अस्मिता नहीं है ? क्या मुक्तिबोध की मराठी अस्मिता को हिन्दी अस्मिता हजम कर गई या ये दोनों एक-दूसरे पर लदी रही हैं ,क्या मराठी साहित्य,कम्युनिस्ट आंदोलन का मुक्तिबोध की अस्मिता पर कोई असर था ? क्या मुक्तिबोध की पुंस अस्मिता को हम भूल जाएं ? क्या उनकी एक पति, शिक्षक,कम्युनिस्ट,लेखक, ब्राह्मण,पिता,पुत्र आदि में से किसी भी अस्मिता को मुक्तिबोध में से निकाल सकते हैं ?
नामवरजी जानते हैं कि व्यक्ति के पास एक नहीं अनेक अस्मिताएं होती हैं,इनमें प्रतिस्पर्धा और अन्तर्विरोध भी हैं। आप अस्मिता के जंगल में जब एकबार दाखिल हो जाएंगे तो तार-तार होकर निकलेंगे। अस्मिता स्वयं का ही नाश करती है। हम तय कर लें हमें लेखक मुक्तिबोध की अस्मिता पर विचार करना है या मराठी भाषी मुक्तिबोध पर विचार करना है अथवा 'मनुष्य मुक्तिबोध' पर विचार करना है। सवाल यह है 'मनुष्य मुक्तिबोध' को देखने की बजाय भाषायी अस्मिता वाले मुक्तिबोध को नामवरजी ने क्यों स्थापित किया, क्या यह तत्कालीन भाषायी अस्मिता संघर्षों का नामवरजी पर प्रभाव है ?
'मनुष्य मुक्तिबोध' उन तमाम अस्मिताओं और विचारधाराओं का अतिक्रमण करता है जिसमें उसे बांधने की कोशिश की जा रही है। एक और सवाल पैदा होता है कि मुक्तिबोध के यहॉं मनुष्य की सत्ता को प्रतिष्ठित करने का काम किया गया है या 'परम अभिव्यक्ति' या ' भाषायी अस्मिता' या 'मैं' को अथवा मैं और मैं के बीच की नाटकीयता को खोजने पर जोर है या मनुष्य को खोजने पर जोर है। आखिरकार मुक्तिबोध क्या स्थापित करना चाहते हैं।
सवाल उठता है मुक्तिबोध मनुष्य की खोज करते हैं अथवा अभिव्यक्ति की खोज करते हैं। नामवरजी यह भूल ही गए कि पूंजीवाद ने मनुष्य केअस्तित्व पर ही हमला बोला हुआ है,मानवीय मूल्यों की क्षयगाथा बताते हुए मुक्तिबोध अभिव्यक्ति की खोज नहीं कर रहे थे, मनुष्य की खोज कर रहे थे। उन्हें कविता से लेकर आलोचना में मनुष्य की तलाश थी, समाज में मनुष्य के जितने रूप हैं उनके सभी चरित्र व्यक्त होते हैं लेकिन ये चरित्र माध्यमभर हें। सामाजिक चरित्रों की खोज करना उनका लक्ष्य नहीं है लक्ष्य है मनुष्य को खोजना, मनुष्य की अक्षुण्ण सत्ता को स्थापित करने के क्रम में उन्होंने विभिन्न विचारधाराओं की यात्रा की और इस यात्रा में उन्हें लगातार मनुष्य पर पूंजीवाद के बर्बर हमले दिखाई दिए जिसे उन्होंने अपनी अंतर्वस्तु बनाया।
मुक्तिबोध ने पूंजीवाद को नंगा करने के लिए अस्मिता,भाषा और अभिव्यक्ति का नहीं मनुष्य की सत्ता का सहारा लिया, मनुष्य की सत्ता के प्रति इस तरह की गहरी प्रतिबद्धता भारत में बहुत कम लेखकों में नजर आती है।
मनुष्य की सत्ता को प्रतिष्ठित करने के लिए मुक्तिबोध अनेक किस्म के उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं, उनमें अस्मिता,भाषा आदि भी हैं, लेकिन उनका लक्ष्य मनुष्य है परम अभिव्यक्ति नहीं। पूंजीवाद ने मनुष्य के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया था। दूसरी बात यह है कि अभिव्यक्ति और भाषा के अपने पैर नहीं होते। मनुष्य के कंधे पर सवार होकर ही वे जाती हैं। मजेदार बात यह है कि स्वयं को व्यक्त करने के लिए भाषा भी चाहिए,अभिव्यक्ति भी चाहिए। लेकिन किसके लिए अस्मिता के लिए अथवा मनुष्य के लिए। मनुष्य की सत्ता ही एकमात्र सत्य है बाकी तो मिथ्याचेतना है। मुक्तिबोध इस अर्थ में अपने युग का और अपने सामयिक साहित्यकारों का अतिक्रमण करते हैं क्योंकि मनुष्य को पाने की जितनी उत्कट आकांक्षा उनके यहॉं है वह अन्यत्र उतनी फोर्स के साथ दिखाई नहीं देती।
विषय को समझाने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है और यही इसका निहितार्थ भी है।
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