मुक्तिबोध के बारे में एक बात जरूर माननी पड़ेगी कि उनकी नजर पैनी थी, और यथार्थ पर गहरी पकड़ थी। यह बात मैंने कल निखिल दा से कही थी कि हिन्दी में एक ऐसा भी लेखक था जो साहित्य की ही नहीं हिन्दी प्रोफेसरों की भी नब्ज अच्छी तरह से पहचानता था। निखिल दा मानने को तैयार नहीं थे। क्योंकि निखिल दा ने नामवर जी,शिवकुमार मिश्र, मैनेजर पांडेय जैसे शिक्षकों को देखा था। निखिल दा ने बार बार यह कहा कोलकाता में हिन्दी के प्रोफेसर कैसे हैं यह मैं नहीं जानता,हां,पेशेवर ईमानदारी का अभाव मैं सभी विषयों के प्रोफेसरों में महसूस करता हूँ। हम दोनों बातें करते चले जा रहे थे।
मैं नहीं जानता था कि मुक्तिबोध ने हिन्दी के प्रोफेसर नामक जीव के बारे में कभी कुछ नहीं लिखा था। निखिलदा का मानना था कि जरूर लिखा होगा। मैं घर आया और तेजी से मुक्तिबोध की किताबें पलटने लगा और अचानक मेरी नजर मुक्तिबोध के निबंध 'घृणा की ईमानदारी' पर पड़ी।शानदार निबंध है। मैंने तुरंत निखिल दा को फोन करके बताया कि मुक्तिबोध का एक निबंध मिल गया है। वे बोले मैं आ रहा हूँ। निखिल दा के आने के बाद मैंने कहा कि मुक्तिबोध ने बड़े ही सुंदर ढ़ंग से हिन्दी के प्रोफेसर का व्यक्तित्व विवेचन किया है। बोले पढ़कर सुनाओ। मुक्तिबोध ने लिखा है-
'' बटनहोल में प्रतिनिधि पुष्प लगाए एक प्रोफ़ेसर साहित्यिक से रास्ते में मुलाकात होने पर पता चला कि हिन्दी का हर प्रोफेसर साहित्यिक होता है। अपने इस अनुसन्धान पर मैं मन ही मन बड़ा खुश हुआ। खुश होने का पहला कारण था अध्यापक महोदय का पेशेवर सैद्धान्तिक आत्मविश्वास। ऐसा आत्मविश्वास महान् बुद्धिमानों का तेजस्वी लक्षण है या महान् मूर्खों का देदीप्यमान प्रतीक ! मैं निश्चय नहीं कर सका कि वे सज्जन बुद्धिमान हैं या मूर्ख ! अनुमान है कि वे बुद्धिमान तो नहीं, धूर्त और मूर्ख दोनों एक साथ हैं। ''
निखिल दा ने मुक्तिबोध के लिखे को जब सुना तो उन्हें लगा कि हिन्दी में प्रोफेसरों की एक जमात ऐसी भी है जो धूर्त और मूर्ख दोनों है। अब क्या था निखिल दा मुक्तिबोध की कसौटी पर रखकर प्रोफेसरों को तौल रहे थे और अपने अज्ञान पर गुस्सा भी हो रहे थे। निखिलदा ने कभी सोचा नहीं था कि प्रोफेसर धूर्त और मूर्ख एक ही साथ होते हैं। मैंने निखिल दा के दुख को और गहरा करते हुए कहा कि मुक्तिबोध ने अपने इसी निबंध में एक और बड़ी मार्के की बात कही है। मुक्तिबोध ने लिखा है '' चूँकि प्रोफेसर महोदय साहित्यिक हैं इसलिए शायद वे यह कुरबानी नहीं कर सकते। नाम - कमाई के काम में चुस्त होने के सबब वे उन सभी जगहों में जाएंगे जहॉं उन्हें फायदा हो-चाहे वह नरक ही क्यों न हो।'' यह वाक्य सुनते ही निखिल दा का पारा सातवें आसमान पर था बोले अब समझ में आता है हिन्दी के प्रोफेसर किस तरह की अकादमिक यात्राओं में व्यस्त रहते हैं। निखिल दा पूछने लगे यह निबंध कब और कहां छपा था मैंने कहा 'नया खून' में 13 जनवरी1956 को प्रकाशित हुआ था। मैंने निखिल दा से मुक्तिबोध के विचारों पर बहस को आगे बढाया तो उन्होंने बड़ी ही विनम्रता के साथ कहा सुना है हिन्दी में गुटबाजी बहुत है ,हिन्दी में ऐसे प्रोफेसरों की ऐसी जमात पैदा हो गयी है जो देश और प्रान्त के प्रत्येक हिन्दी विभाग का खाता रखते हैं, कहां किसकी पार्टटाइम नौकरी लगी है ,से लेकर प्रत्येक हिन्दी विभाग की छोटी से छोटी बातें संकलित करते रहते हैं,यह सूचना संकलन वैसे ही करते हैं जैसे कोई कवि अपने लिए छंद एकत्रित करता है और दोहाछंद में अपनी कविता सुनाने को बेताब रहता है।
मैंने निखिल दा से कहा कि हिन्दी प्रोफेसर की नई जमात मुक्तिबोध के पकड़े यथार्थ से दो कदम आगे निकल चुकी है। अब ऐसे लोग प्रोफेसर होते हैं जो न कभी लिखते हैं और न कभी पढते हैं। वे सिर्फ घूमते हैं ,गोटियां फिट करते हैं, इस नेता को पटा,उस नेता को पटा , के काम में मशगूल रहते हैं और इसी को वे हिन्दी सेवा कहते हैं। निखिल दा ने बीच में टोककर कहा कि हिन्दी वाले निन्दारस में बहुत मगन रहते हैं। इसका क्या कारण है,मैंने कहा कि इसके बारे में भी मुक्तिबोध ने बड़ी ही शानदार बात कही है। मुक्तिबोध ने लिखा है '' अन्यथा भाव से दूसरों की निन्दा करना हमारे जनतंत्र के अन्तर्गत है। जनतन्त्र है ही इसीलिए कि उसकी करोड़ों ऑंखें, दुनिया में क्या चल रहा है यह सब देखें। अन्यथा भाव से निन्दा और शुद्ध आवेश से आलोचना के बीच की रेखा बड़ी पतली है। ''
हमारे हिन्दी के प्रोफेसर और साहित्यकार इन दिनों पूरी तरह उत्तर आधुनिक भाषा में बोलते हैं। उन्हें 'वाद' से नफरत है, 'विचारधारा' और 'दलीय' मान्यताओं से एलर्जी है,ऐसे में उनके साथ बातें करना अपने को अंधे कुँए में ड़ालना होगा। हमारे एक दोस्त प्रोफेसर साहब जब भी मिलते हैं तो एक ही बात कहते हैं कि देखो मैं तुम्हारी निंदा नहीं करता क्या तुमने मुझे कभी निंदा करते हुए देखा है, मैं मन ही मन सोचता हूँ कि मुक्तिबोध कितने बड़े लेखक थे कि उन्होंने यह बहुत पहले ही भांप लिया था कि हिन्दी का प्रोफेसर निंदा के अलावा और कुछ नहीं करता। मैं आजकल के जिन प्रोफेसरों की बातें कर रहा हूँ वे मुक्तिबोध की राय पर खरे उतरते हैं थोड़े संशोधन के साथ। इन दिनों ये लोग मनमोहन सिंह से लेकर बुद्धदेव भट्टाचार्य की सेवा में अहर्निश व्यस्त रहते हैं ,वे यह दावा कर रहे हैं कि वे तो शिक्षासेवा कर रहे हैं। हमारे यहां ऐसे शिक्षासेवा करने वाले विचारधाराहीन प्रोफेसर इफरात में मिलते हैं। ये प्रोफेसरान अपने सारे गैर अकादमिक कर्मों को छात्रसेवा और शिक्षासेवा के नाम से प्रचारित करते हैं। साथ ही इसे विचारधाराविहीन कर्म की संज्ञा देते हैं। वे इन्हीं दो 'महान्' उद्देश्यों से प्रेरित होकर साहित्यसेवा भी करते हैं। इन लोगों को आप आए दिन अन्तर्विरोधी मंचों पर सक्रिय देख सकते हैं। ये पक्के व्यवहारवादी हैं। इन्हें मार्क्सवादी या प्रतिक्रियावादी समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। इनका एक ही वाद है 'मूर्खतावाद'।
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