1.12.09

प्रकाश खत्री की रचनाएँ




(1)
 अच्छा लगता है
 बहुत दिनों के बाद
 धुप की बेतरतीबी और छांव का शालीन संकोच ..............। 
अच्छा लगता है 
बहुत दिनों के बाद 
सोचना किसी के भीतर की तपिश पर
 और
 अपने ही बोझ से हल्का हो जाना ............। 
अच्छा लगता हैं 
बहुत दिनों के बाद 
अपने हिस्से की सांसों को गिनना 
और खुश्बूओं के बीच प्रेम का होना .......।

(2)
 देखता हूँ
 बहुत दूर से
 तुम्हें आते हुए
 और 
दोड़कर छिप जाता हूँ 
तुम्हारे ही भीतर.........। 
जब देर तक
 लौटते नहीं हो तुम
 दूर कहीं गहरे समदरों से
 मैं ................ सिर्फ
 तुम्हारी राह 
देखता हूँ। 


(3)
 टटोलते हुए 
एक दूसरे की जेबें, 
फिराते हुए चेहरों पर हाथ, 
गुमशुदा की तलाश में, 
दिन रात
 भागते हुए 
एक लंबी सुरंग में 
कहीं फंसे थे लोग..............। 
उम्र निकल रही थी
 और वे
 पसीना पसीना हो रहे थे..............। 


(4)
 एक सफेद मेमना
 दौड़ रहा था 
धरती और आकाश के बीच 
बहुत से लोगों की 
छातियों पर..............।
 बांध टूटने को था 
और
 सब कुछ
 डूबने को तैयार हो रहा था.............
. सुनहरी बैचेनियों के जंगल
 बस्तियों को लील कर
 वीरानियां उगा रहे थे’


 (5) 
बहुत से अधूरे कार्यों की फेहहिस्त 
उसके हाथ में है
 जबकि इन दिनों उसे ज़िद है
 प्रेमविहीन सादेपन को
 उखाड़ फेंकने की।
 पता नहीं 
तसल्लियों की डूबती रोशनी में
 बेबाक हो चुकी 
उदासियों का .............. वो क्या करें।
 उसे तो ये भी नहीं पता 
कि 
बेरूह चेहरों की भीड़ में मिले 
चांद को 
वो कैसे सहेजे ..............।।।


 (6)
 तुम्हारी अधखुली पलकें
 मेरी देह के 
रहस्यों को 
अनावृत कर देती हैं..............। 
मैं 
निस्तब्ध सा 
अंधेरे के सागर में 
उभरती हुई
 नौका को देखता हूं 
जिसकी
 दूधिया मौजूदगी
 मेरे भीतर
 फूलों से लदी
 प्रार्थना को जन्म देती हैं..............।


 (7) 
सागर को गहरी नज़र से छू लो
 तो
 वो खुद ही उलीचने लगता है
 अपनी सीपियां .............. अपने मोती ....... 
विशाल जहाजों को
 गुज़र जाने देता है 
अपने चौड़े चकले सीने पर से ..............
 मछुआरों को बांट देता है 
मीठे गीतों की पोटली ........... 
निर्जन द्वीपों को भर देता है
 निद्र्वन्द्व समुद्री हवाओं से ...........
 तुम हैरान हो सकते है। 
उसकी
 इस अविश्वसनीय सुंदरता पर 


(8) 
बोनों की प्रेतलीला के बीच
 मैं ........... स्वप्न देखता हूँ
 प्रेम के तिलिस्मी संसार का ........।
 विराट अर्धहीनता के बीच
 भर जाता हूँ 
प्रतीक्षा के आतुर आकाश में, 
समय के निर्जन तट पर 
सेलानियों की सी
 चहलकदमी  करता हूँ ................ 
दुनियां के छीजते विश्वासों 
और 
जर्जर उजालों से लगाकर छलांग 
निकल आता हूँ बाहर .................।
 एक अलिखित सन्नाटे में 
डूबने लगते हैं लोग 
 और 
खुले केशों सी निष्कंप शांति में मैं ...............











(प्रकाश खत्री वर्तमान मैं आकाशवाणी चित्तौड़गढ़ में वरिष्ट उद्गोषक है और लिखने पड़ने में रुचिशील है.उनका संपर्क सूत्र 9414395427 हैं. )
संकलन 
माणिक
आकाशवाणी आकस्मिक उद्घोषक,स्पिक मैके कार्यकर्ता,अध्यापक
www.apnimaati.blogspot.com द्वारा


No comments:

Post a Comment