कृषक और मजदूर हमारे तरसें दाने-दाने को,
दिनभर खून जलाते हैं वो, रोटी, वस्त्र कमाने को,
फिर भी भूखों रहते बेचारे, अधनंगे से फिरते हैं,
भूपति और पूंजीपतियों की कठिन यातना सहते हैं,
भत्ता-वेतन सांसद और मंत्रियों के बढ़ते जाते हैं,
हम निर्धन के बालक भूखे ही सो जाते हैं।
शव निकल रहा हो और शहनाइयां बजें।
दुखियों की हड्डियों से यहां कोठियां सजें।।
-मुहम्मद शुऐब एडवोकेट
दिनभर खून जलाते हैं वो, रोटी, वस्त्र कमाने को,
फिर भी भूखों रहते बेचारे, अधनंगे से फिरते हैं,
भूपति और पूंजीपतियों की कठिन यातना सहते हैं,
भत्ता-वेतन सांसद और मंत्रियों के बढ़ते जाते हैं,
हम निर्धन के बालक भूखे ही सो जाते हैं।
शव निकल रहा हो और शहनाइयां बजें।
दुखियों की हड्डियों से यहां कोठियां सजें।।
-मुहम्मद शुऐब एडवोकेट
भत्ता-वेतन सांसद और मंत्रियों के बढ़ते जाते हैं,
ReplyDeleteहम निर्धन के बालक भूखे ही सो जाते हैं।
शव निकल रहा हो और शहनाइयां बजें।
दुखियों की हड्डियों से यहां कोठियां सजें।।
satykathan...!
शव निकल रहा हो और शहनाइयां बजें।
ReplyDeleteदुखियों की हड्डियों से यहां कोठियां सजें।।
संवेदनशील रचना। बधाई।