17.12.09
आपने भी ईश्वर को देखा है!
अपने जीवन में इस यक्ष प्रश्न का सामना हर व्यक्ति को करना पड़ा है कि क्या वाकई ईश्वर हैं ? ब्रह्मज्ञानियों ने परम तत्व या परमात्मा अर्थात ईश्वर का विवेचन विविध भांति से किया है। कुछ के लिए वह अजन्मा, निराकार स्वरूप है तो कुछ के लिए साकार और मानव की भांति जन्म लेने और मृत्यु को प्राप्त करने वाला। नास्तिक तो ईश्वर के आस्तित्व को ही सिरे से अस्वीकार करते हैं। लेकिन कभी न कभी उनके मुंह से भी ईश्वर का नाम निकल ही जाता है। वह उसे भले ही किसी भाषा या किसी रूप में पुकारा गया हो। आप निराकार ब्रह्म को माने या साकार को आपको इतना तो मानना ही होगा कि इस ब्रह्रमांड में कोई ऐसी शक्ति है जो इसे नियंत्रित करती है। क्या आपने कभी सोचा है कि अगर सूर्य अपने नियत समय पर उगना और डूबना छोड़ दे तो इस सृष्टि का क्या होगा। ऋतुओं का समय से आना व अन्य दूसरी क्रियाओं का समय पर होना यह सिद्ध करता है कि इस सृष्टि, इस ब्रह्मांड की नियंता कोई परम शक्ति, सुप्रीम अथारिटी या आलमाइटी है। उसे आप निराकार रूप में समझें या उसके साकार रूप को माने इससे कोई अंतर नहीं आता। अब अगर कोई जगत नियंता शक्ति है तो उसे ईश्वर कह कर पुकारने या मानने में क्या आपत्ति या दुविधा है। भगवान या ईश्वर को धार्मिक रूढ़िवादिता या पाखंड से न जोड़ उसे सार्विक कल्याण की अवधारणा से ऐसी शक्ति के रूप देखना ज्यादा उचित है जो जगत नियंता है, सृष्टि की रचयिता, पालक और फिर उसके विलय का कारण है। निराकार उपासकों के समक्ष सबसे बड़ी सुविधा यह है कि उनके ईश्वर या ब्रहम का आकार नहीं है और वह सर्वव्यापी है। शिवो अहम् का जो सूत्र वाक्य हम अनादि काल से सुनते आये हैं उसके पीछे जीवात्मा और ब्रह्म को निकट लाने, उनमें एकात्म की भावना जगाना ही परम लक्ष्य है। आपने सुना होगा आत्मा सो परमात्मा अर्थात जीवात्मा परमात्मा का ही एक अंश है जिसे अपने अवसान काल में उससे ही मिल जाना है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी अपने रामचरित मानस में इस अवधारणा को इस तरह व्याख्यायित किया है-ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन सहज सकल गुण राशी। यहां यह स्पष्ट कहा गया है कि जीव ईश्वर का अंश और अविनाशी है। अर्थात जीव का शऱीर तो मृत्यु को प्राप्त होता है, निस्पंद हो जाता है लेकिन उसमें निहित आत्मा अजर अमर है और वह जीवन की समाप्ति वेला में परम आत्मा से जा मिलती है। यह आत्मा अजर -अमर है। गीता भी इसे कुछ इस तरह स्थापित करती है- न जायते म्रियते वा कदाचिन...। अगर हम ईश्वर तत्व का विस्तृत विवेचन करने बैठें तो इस पर कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। ईश्वर की विद्वानों ने अपने ढंग से व्याख्या की है और उन्हें अपने ढंग से विविध रूपों में प्रतिष्ठापित करने का प्रयास भी किया है। तुलसीदास ने भी कहा है- ज्ञानिन परम तत्व सम देखा..। इसी प्रकार ईश्वर को पाने या उन्हें अनुभव करने के कई पथ, कई मत विद्वानों ने बताये हैं। लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि क्या किसी ने ईश्वर को देखा है? अगर मैं कहूं कि आपने ईश्वर को देखा है और उसके अस्तित्व को स्वीकार भी किया है तो आप इसे पागल का प्रलाप के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहेंगे। वैसे यथार्थ यही है कि उस सर्व शक्तिमान की उपस्थित का अनुभव हम सबने किया है। आज आवश्यकता है परम साधक रामकृष्ण परमहंस जैसे आत्मज्ञानी महानात्माओं की जिन्होंने अगर विवेकानंद को ईश्वर तत्व का ज्ञान न कराया होता तो संभवतः विवेकानंद आध्यत्म और साधना का वह उत्कर्ष कदापि न प्राप्त कर पाते जो उन्होंने रामकृष्ण के सानिंध्य में पाया। यह कथा तो सबको ज्ञात होगी कि किस तरह युवा विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के सम्मुख गये और कहा कि अगर ईश्वर है तो वे उसे देकना चाहते हैं. देखना चाहते हैं। सर्वविदित है कि इस पर रामकृष्ण ने उन्हें तमाचा जड़ दिया था। उसके बाद विवेकानंद घर लौट आये लेकिन उनके गाल की जलन और पीड़ा कई दिनों तक नहीं गयी। यह तमाचा नहीं विवेकानंद के ज्ञान कपाट खोलने का परमहंस रामकृष्ण का सद्प्रयास था। और उसके बाद विवेकानंद वापस उनके पास गये और ज्ञान का वह अमृत चखा जो सदा के लिए उनको अमर बना गया। वे उसके बाद परम तत्व को समझ पाये और उसका विश्व में प्रचार किया। हमारे ज्ञान कपाट भी बंद हैं। हम जागतिक प्रपंचों में कुछ इस प्रकार आबद्ध और अवरुद्ध हैं कि उस अंधकार से हम परम प्रकाश के पथ की ओर अग्रसर ही नहीं हो पाते। आप इस बात को मानेंगे की ईश्वर हैं और आपने उनको अपने जीवनकाल में कभी न कभी देखा या अनुभव किया है। अगर उनका अनुभव आपको हुआ है तो फिर आप उनके होने पर प्रश्न कैसे खड़े कर सकते हैं। आपके जीवन में जब-जब दारुण कष्ट पड़ता है, किसी दुर्घटना में आपकी प्राण-रक्षा हो जाती है तो आप सहसा कैसे कह बैठते हैं- अरे भगवान ने बचा लिया। या थैंक्स गॉड वी आर सेव्ड। कौन है यह ईश्वर या गॉड जिसका आप धन्यवाद कर रहे हैं। अगर ईश्वर या भगवान है ही नहीं तो फिर आपके मुंह से उसका नाम कैसे निकला? यह प्रश्न आप स्वयं से कीजिए और आप मान जायेंगे कि आपने भी कभी न कभी ईश्वर को देखा है। अनुभव करना भी तो किसी वस्तु के अस्तित्व को स्वीकारना ही है। आप हवा को देख नहीं पाते तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि उसका अस्तित्व नहीं है। जिस दिन उसका अस्तित्व नहीं होगा, उस दिन यह सृष्टि भी नहीं रहेगी। इसलिए कुछ चीजों का अनुभव ज्ञान चक्षुओं से भी किया जाता है। नास्तिक ईश्वर को नहीं मानते लेकिन उनके मुंह से भी विपत्ति में ओ गॉड या हे ईश्वर निकल जाता है। यह उनसे कौन बोलवाता है। उनकी आत्मा, उनकी अंतस्चेतना जो स्वयं परमात्मा का स्वरूप है और वह जीव को सदैव अपने होने का अनुभव कराती रहती है.। एक बार फिर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर धर्म और संप्रदायों के बंधन से मुक्त है और सबका व सबके लिए है। हम उसे जिस रूप में आज ले रहे हैं वह हमारा स्वार्थ है उसके नाम पर अपना भला करने का जबकि वह सार्विक कल्याण और जगत हित का पोषक और पक्षधर है। परम तत्व को जानना, उसका अनुभव करना यह ज्ञानमार्ग से संभव है। तार्किक धरातल पर विवेचन करने पर भी यह बात सामने आयेगी कि सृष्टि या ब्रहमांड की नियंता कोई परम शक्ति है। यदि हम उसे ईश्वर के नाम से जाने और उससे श्रद्धा और भक्ति रखें तो इसमें क्या आपत्ति हो सकती है। हां, इस भक्ति को रूढि़ या और को अपने से कम आंकने और स्वयं को श्रेष्ठ कहने के भाव से ग्रस्त नहीं होना चाहिए। हम निर्विकार, निश्छल और निस्पृह रह कर ही सच्ची आराधना कर सकते हैं। परमात्मा की जय हो, सर्वशक्तिमान की जय हो, जगतनियंता की जय हो, प्राणियों का कल्याण हो। जगत में समता, ममता और शुचिता हो। पाप का क्षय हो धर्म (सत्य पर आधारित आडंबरमंडित नहीं) की जय हो।
No comments:
Post a Comment