विस्फ़ोट पर अर्जुन ने लुधियाना-प्रशासन की पोल खोली है. स्थानीय लिगों को भङका कर प्रवासी उत्तर भारतीयों पर उद्योग नगरी लुधियाना में जुल्म ढआये गये. विडम्बना यह कि मजदूरों के बिना न मुम्बई का उद्योग चल सकता है, न लुधियाना का. उद्योगों का केन्द्रीकरण और शहरीकरण व्यवस्था के जी की जंजाल बन गया है. अर्जुन ने सही प्रश्न खङा किया है कि प्रशासन के पास सामान्य दुर्घटनाओं को संभालने की दृष्टि और कूवत नहीं, तो स्वयं चलाकर हालात खराब क्यों करती है? क्या पंचतन्त्र की चमगादङ वाली कहानी नहीं पढी; कभी स्थानीय लोगों से प्रवासियों को पिटवाया तो कभी प्रवासियों से स्थानीयों को... यदि दोनों मिल गये तो मिलकर प्रशासन को चमगादङ बनाकर गुफ़ाओं में छुपने को मजबूर नहीं करेंगे क्या?.. .. वैसे अर्जुन जी, यह समझ लें कि भ्रम की व्यवस्था से अच्छे की कामना करना मोह कहलाता है. आपके आलेख पर ट्टिपणी तो आपने पढी ही होगी, क्या समझे भी हैं!
अपनी बला को टालना, शासन का दस्तूर.
रक्षक ही भक्षक बने, लोग बहुत मजबूर.
लोग हुये मजबूर, न्याय की आशा टूटी.
हर हिस्से में आग, देश की किस्मत फ़ूटी.
कह साधक कवि मानव संभले, स्वयं छला जो.
शासन का दस्तूर टालना अपनी बला को.
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