राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दावा तो सांस्कृतिक संगठन होने का करता है परन्तु उसने भारत की बहुलतावादी संस्कृति एवं सहअस्तित्व की भावना से हमेशा परहेज ही किया। उसके गैर-राजनीतिक होने के दावे की हकीकत से देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। बाजपेई और आडवाणी 85 वर्ष के करीब हो गये, वे अपनी उम्र और भूमिका दोनों का सफर तय कर चुके हैं। उनके शरीर नश्वर हैं..... समाप्ति की ओर अग्रसर। लेकिन भाजपा की आत्मा - ”राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ“ भी 85 साल की होने के बावजूद न तो स्वयं को मृतप्रायः स्वीकार करने को तैयार और न ही अपने राजनीतिक संस्करण भाजपा को ही।
सत्ता में आने के लिए भाजपा बार-बार अपनी आत्मा यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोषित सोच के साथ समझौता करने के बावजूद राजनीतिक क्षितिज पर पराभव की ओर अग्रसर है। अपने राजनीतिक संस्करण की इस दुर्दशा पर बहुत चिन्तित है संघ। बड़ी कुलबुलाहट, बड़ी छटपटाहट का शिकार है संघ। पूर्व संघ प्रमुख के.सी.सुदर्शन भाजपा नेतृत्व से शिकायतें करते ही रह गये कि भाजपा सत्ता के नशे में परिवार के योगदान को भुला बैठी। भागवत संघ परिवार के मुखिया बनने के बाद लोकसभा चुनावों में पार्टी की पराजय को बर्दाश्त नहीं कर सके। अपनी 60वीं वर्षगांठ की ओर अग्रसर भागवत चीख उठे - ”बदलाव जरूरी है।“ समाचार माध्यमों एवम् राजनीतिक हल्कों में भाजपा ने कुलबुलाहट को शान्त करने का प्रयास किया। राजनाथ सिंह पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र के नाम पर मामले को शान्त करते नजर आये। वे पार्टी के जिस आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई दे रहे थे, पूरा देश उसके अस्तित्वहीन होने से परिचित है।
आखिर 18 दिसम्बर को वह घड़ी आ ही गयी जब संघ के प्रतिनिधि के तौर पर गडकरी ने भाजपा की शीर्षसत्ता यानी उसके अध्यक्ष पद पर आसीन हो गये। भागवत के निर्देशन में ‘हेडगेवार भवन’ में भाजपा को एक बार फिर जिन्दा रखने के लिए जो ब्लूप्रिन्ट तैयार किया गया था, उसको अगली जामा पहनाया जाने लगा।
गडकरी की क्या पहचान होगी? उनके सामने पार्टी की लगभग वही स्थिति है तो सन 1984 में भाजपा की थी। संघ का स्वास्थ्य हमेशा जन-मानस के रूधिर से ही पनपता रहा है। तब संघ को अयोध्या में एक प्रतीक नजर आ गया। उस प्रतीक के झुनझुने को लाल कृष्ण आडवाणी को एक रथ पर बैठा कर पकड़ा दिया गया। वे पूरे देश में उस झुनझुने को बजा-बजाकर आवाम की शान्ति-चैन छीनने निकल पड़े क्योंकि फासिस्ट संघ के राजनीतिक संस्करण भाजपा को जीने के लिए तमाम लाशों की जरूरत थी। उधर संघ परिवार अपने अन्य अनुषांगिक संगठनों के साथ मिलकर अयोध्या के प्रतीक को ध्वंस करने के ब्लूप्रिन्ट को अमली जामा पहनाने की तैयारी करता रहा। उस दौर में पूरे देश में काफी लाशें गिराने में संघ और भाजपा सफल रहे। उन लाशों से गुजर कर आखिरकार भाजपा को एक नया जीवन मिल गया। केन्द्र में सत्तासीन होने का उसका रास्ता प्रशस्त हुआ था परन्तु वह 24 पार्टियों का सर्वमान्य नेता कथित उदारमना अटल बिहारी बाजपेई के नाम पर सहमत होने पर ही सम्भव हो सका था।
उस दौर ने जनता के सामने संघ परिवार की सोच को साफ-साफ पेश कर दिया था। उसके इस चेहरे से भी जनता अब परिचित हो गयी है।
अब देखना होगा कि गडकरी के हाथ में भागवत ”हेडगेवार भवन“ से कौन सा झुनझुना और कैसा रथ भेजते हैं। हमें सतर्क रहना होगा क्योंकि मृतप्रायः भाजपा को नया जीवनदान देने के लिए संघ फिर लाशों की राजनीति करने से नहीं हिचकेगा। हम जनता से यही गुजारिश कर सकते हैं कि जागते रहो और फासिस्ट संघ की नई चाल से सतर्क रहो।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि अयोध्या के प्रतीक रूपी झुनझुने की अवधारणा तैयार करने के पहले संघ परिवार ने सत्तर के दशक से अस्सी के दशक के मध्य तक कई पैतरों का इस्तेमाल किया था। पहले उन्होंने स्वामी विवेकानन्द को अपनाने का प्रयास किया परन्तु स्वामी विवेकानन्द के शिकागो के ऐतिहासिक भाषण की यह लाईनें कि ”भूखों को धर्म की नहीं रोटी की जरूरत होती है“ भाजपा के रास्ते पर आकर खड़ी हो गईं। फिर उन्होंने शहीदे-आजम भगत सिंह को अपना प्रतीक बनाने का प्रयास किया तो भगत सिंह का खुद को नास्तिक घोषित करने का मामला भाजपा के आड़े आ गया। तब उन्होंने ”गांधीवादी समाजवाद“ का प्रलाप शुरू किया तो जनता ने गांधी के हत्यारे के रूप में भाजपा को चित्रित कर उसे लोकसभा में दो सीटों तक पहुंचा दिया। सम्भव है शुरूआती दौर में संघ एक बार फिर इस तरह के प्रतीकों का इस्तेमाल करने की असफल कोशिश करे परन्तु अन्तोगत्वा उसे जिन्दा रहने के लिए लाशों की ही जरूरत पड़ेगी। उसका इतिहास तो यही बताता है।
प्रदीप तिवारी
प्रदीप जी आपका सोचना गलत हॆ। आरएसएस एक महान सांस्कृतिक संगठन हॆ। अगर आरएसएस नही होता तो भारतवर्ष भाषा,धर्म एंव भूगोल के आधार पर विखंड़ित हो जाता। आरएसएस ने इस देश को समाजिक,सास्कृतिक,भॊगोलिक ऒर विचारधारा के आधार पर बाँध रखा हॆ।
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