25.1.10
लो क सं घ र्ष !: गणतंत्र दिवस पर विशेष: बोलो देश बंधुओ मेरे .......
अंधे भूखे अधनंगे जो, फुटपथों पर रात बिताएं।
बोलो देश बंधुओं मेरे, वे कैसा गणतंत्र मनाएं॥
पेट की आग बुझाने खातिर, जो नित सुबह अँधेरे उठकर
अपना-अपना भाग बटोरते, कूड़े के ढेरों से चुनकर।
गंदे नालों के तीरे जो, डेरा डाले दिवस बिताएं॥ बोलो देश......
बिकल बिलखते भूखे बच्चे, माओं की छाती से चिपटे,
तन पर कुछ चीथड़े लपेटे, सोये झोपड़ियों में सिमटे।
दीन-हीन असहाय, अभागे, ठिठुर-ठिठुर कर रात बिताएं॥ बोलो देश..........
जिनका घर, पशुधन, फसलें, विकराल घाघरा बहा ले गयी।
कोई राहत, अनुदान नहीं, चिरनिद्रा में सरकार सो गयी।
सड़क किनारे तम्बू ताने, शीत लहर में जान गवाएं॥ बोलो देश .........
वृद्ध, अपंग, निराश्रय जिनको, सूखी रोटी के लाले हैं,
उनके हिस्से के राशन में, कई अरब के घोटाले हैं।
वे क्या जन गण मंगलदायक, भारत भाग्य विधाता गायें॥ बोलो देश......
बूँद-बूँद पानी को तरसें , झांसी की रानी की धरती।
अभी विकास की बाट जोहती बुंदेले वीरों की बस्ती।
जहाँ अन्नदाता किसान, मजदूर करें आत्महत्याएं॥ बोलो देश..........
तीस साल के नवजवान जो, वृद्धावस्था पेंशन पाएं।
सत्तर साल की वृद्धा, विधवा, भीख मांगकर भूख मिटायें।
पेंशन मिला न कौनो कारड़, रोय-रोय निज व्यथा सुनाएं॥ बोलो देश ....
रात-दिवस निर्माण में लगे, जो श्रमिक कारखाने में।
जिनकी मेहनत से निर्मित, हम सोते महल, मकानों में,
खुले गगन के नीचे खुद, सर्दी, गर्मी, बरसात बिताएं॥ बोलो देश........
माघ-पूष में जुटे खेत में, जो नित ठण्ड शीत लहरी में,
तर-तर चुए पसीना तन से, जेठ की तपती दो पहरी में।
हाड-तोड़ परिश्रम करें। मूल सूखी रोटी नमक से खाएं॥ बोलो देश........
मोहम्मद जमील शास्त्री
सच में हकीकत सामने ला कर रख दी आपने. फिर एक गणतंत्र दिवस? जबकि आधी जनता आजादी का मतलब ही नहीं समझ पाई है. इस खुबसूरत रचना के लिएबधाइयाँ.
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