संपादक सुश्री मंजूराज ठाकुर
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सुबह सुबह इटारसी बस स्टेंड के रास्ते से गुजरते हुए मैंने देखा कि आज यहां यात्रियों के अलावा भी कुछ अन्य लोग है, चहलपहल आज ज्यादा है. कार्यक्रम जैसे आयोजन का आभास हुआ. इतनी ठंड में आज यात्रियों के अलावा बस स्टेंड पर इतने लोगों का जमा होना आम आदमी को सोचने पर मजबूर कर गया. मुझे पता था इतने सारे महानुभव यहां क्यों इकटठा हैं पर यूं ही, एक सामान्य जन की सोच को जानने के लिए मैंने देश के कर्णधार से पूछ लिया कि भई क्या हो रहा है यहां. जवाब उस नौजवान का जिसके कांधे पर देश का भार है, उसने कहा नेताओं की नौटंकी है. स्वतंत्रता की लड़ाई के एक महान नायक नेताजी को याद करने में भी नाटक कर रहे हैं. यहां आज जो शहरवासी इकटठा हुए हैं वो कल से लेकर अगले वर्ष तक अद़श्य हो जायेंगे. पर आप देखना अगले साल सब लोग को नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिन याद आ जायेगा और वे इसे मनाने इसी तरह इकटठा होंगे, माला डालेंगे, भाषण देंगे और रस्मी तौर पर उन्हें याद करेंगे.
लगा नौजवान सही कह रहा है. युवा पीढ़ी है, नई सोच और सच्चाई के साथ आगे बड़ रही है, जो देख रही है कह रही है. उनमें आक्रोश भी है.
ठीक ही तो है आजादी के 62 साल बाद भी आज हमारे राष्ट्रीय नेताओं के हाल बेहाल हैं. इनकी जगह जगह सिर्फ प्रतिमा लगा, नागरिक अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ले रहा है. 'प्रतिमाएं लगा कर' कहने का तात्पर्य है जिस दिन प्रतिमा लगेगी उस दिन एक बड़ा सा प्रोग्राम, प्रोग्राम में नेता, बड़ी बड़ी बातें, कुछ भाषण और फिर एक भूलभुलैया का दौर. हर वह राष्ट्रीय नेता जो किसी चौराहे पर प्रतिमा के रूप में खड़ा है, देख कर लगता है आज कितने दुखी होंगे. जिन लोगों के लिए उन्होंने अपनी कुर्बानी दी, वो आज उन्हें अपना थोडा सा वक्त देना मुनासिब नहीं समझते. पक्षी इन पर बीट करते हैं और धूल तो साल में एक बार ही साफ होती है. लगा ये आज सुभाष बाबू के साथ हो रहा है अभी जनवरी के अंत में राष्ट्रपिता गांधीजी की बारी है. उनकी प्रतिमा पर से भी धूल उतारी जायेगी और कुछ उनके चुनिंदा गीतों के साथ श्रद्धांजलि सभा आयोजित की जायेगी.
जन्मदिवस हो या श्रद्धांजलि सभा, यह रिवाज बन गया है इस शहर का. इसको बदलने के लिए पहले यहां के लोगों को सुप्त अवस्था से जाग्रत अवस्था में लाना होगा या इन्हीं की भाषा में समझाएं, तो इन्हें बताना होगा कि यदि किसी दिन ये भी राष्ट्रीय नेता बने और उनकी प्रतिमा भी किसी चौक चौराह पर लगी तो उसका भविष्य जाना पहचाना हैं. वैसे वास्तव में इस रिवाज के विरोध में एक अभियान प्रारंभ कर नगरवासियों को यह बताना होगा कि साल भर में एक दिन इन महात्माओं को याद करना मात्र ही देशभक्ति नहीं है, मन से इनका सम्मान करना ही इनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
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